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________________ किरण ५ । राजस्थानके जैन शास्त्र भण्डारोंमें उपलब्ध महत्वपूर्ण ग्रन्थ १५७ यह प्रति संवत् १९६१ पौष सुदी १२ वृहस्पतवारकी. जो ग्रन्थ-सूची आजकल तैयार की जा रही है उसीके लिखी हुई है। श्री चाहड सौगाणीने कर्मक्षय निमित्त सम्बन्धमें मुझे नागौर जाकर ग्रन्थ भण्डार एवं सूचीके इसकी प्रतिलिपि की थी। भट्टारक परम्परामें लिपिकारने कार्यको देखनेका सुअवसर मिला था। उसी समय यह भट्टारक जिनचन्द्र एवं उनके शिष्य रत्नकीर्तिका उल्लेख रचना भी देखने में आयी। किया है। - शांतिनाथचरित्रके रचयिता श्री शुभकीर्ति देव हैं। कविने अपने नामके पूर्व उभय भाषा चक्कवट्टि अर्थात् कविने निम्न दोहेसे बारहखड़ी प्रारम्भ की है उभयभाषा चकवर्ति यह विशेषण लगाया है इसलिये सम्भव वारह विउणा जिण णवम्मि किय वारहखरकक्कु । है कि शुभकीति संस्कृत एवं अपभ्रंश भाषाके विद्वान महियंदण भविययण हो णिसुणहु थिरु मणु लक्कु ॥ हों। इन्होंने अपनी रचनाको महाकाव्य लिखा है। और भव दुक्खह निविएणएण 'वीरचन्द' सिस्सेण । बहुत कुछ अंशोंमें यह सत्य भी जानपड़ता है। शांतिनाथभवियह पडिबोहण कया दोहा कक्कमिसेण ॥ चरित्रकी रचना रूपचन्दके अनुरोध पर की गयी है जैसा एकजु श्राखरूसार दुइज जण तिण्णि वि मिल्लि । कि कविके निम्न उल्लेख स्पष्ट है। चउवीसग्गल तिण्णिसय विरइए दोहा विल्लि ॥ इस महाकाव्य में १६ संधियां हैं जिनमें शांतिनाथके सो दोहउ अप्पाणयहु दोहा जाण मुणेइ। जीवन पर विस्तृत प्रकाश डाला गया है। प्रथम और मुणि महयंदिण भासियउ सुणि णिय चित्त धरेइ ॥ अन्तिम पुष्पिका इस प्रकार हैअब बारहखड़ीके कुछ दोहे पाठकोंके अवलोकनार्थ प्रथम संधिउपस्थित किये जाते हैं जिससे वे रचनाकी भाषा, शैली इयि उभयभासा चक्कहि सिरिसुकित्तिदेव विरइए एवं उसमें वर्णित विषयके सम्बन्ध में कुछ अधिक जान- महाभव्व सिरिरुवचंद मण्णिए महाकव्वे सिरि विजय कारी प्राप्त कर सकें बंभणो णाम पढमो संधि सम्मत्तो। . कायही सारउ एय जिय पंचमहाणु वयाइ । अन्तिम संधि'अलिउ कलेवरू भार तहु जेहि ण धरियइ ताइ । इयि उभयभाषा चक्कदि सिरि सुहकित्तिदेव विरइए महाभव्व सिरिरुवचंद मण्णिए महाकव्वे सिरि सांतिणाहखणि खणि खिज्जइ श्रावतसु णियडउ होइ कयंतु । चचक्काउह कुमार णिध्वाण गमणं णाम इगुणीसमो संधि समतो। तृहि वण थक्कह मोहियउ मे मे जीउ भणंतु ॥ नागौर शास्त्र भण्डारकी यह प्रति सम्वत् १५५१ गीलह गुडि जिम माछपहि पावसि पडि वि मरंति । ज्येष्ठ सुदी १० बुधवारकी लिखी हुई है। इसकी प्रति बिपि भट्ट रक जिनचन्द्रदेवके शिष्य ब्र. वीरु तथा तिम भुवि महयंदिण कहिय जे तिय संगु करंति ॥ ब्रह्म लालाने अपने पढ़ने के लिये करवायी थी प्रतिपूर्ण और सामान्य अवस्था में है। ते किं देवें कि गुरूणा धम्मेण य किं तेण । अप्पश चित्तह णिम्मलउ पंचड होइ ण जेण ॥ योगसार (श्रतकीर्ति) x x x मे परियणु मे धरणु धणु मे सुव मे दाराई । - भ० श्रुतकीर्तिकी तीन रचनाओंका-धर्मपरीक्षा, हरिइड चितंतह जीव तुहु गय भव-कोडिसयाई॥ वंशपुराण और परमेष्ठिप्रकाशसार का-डाहीर लालजी जैन प्रो० नागपुर विश्वविद्यालयने अनेकान्त वर्ष १. ... सांतिणाहचरिउ (शुभकोति) किरण २ में उल्लेख किया था । योगसार' के सम्बन्धमें ( ४) डाक्टर साहबने कोई उल्लेख नहीं किया, इसलिए यह उक रचना नागौर (राजस्थान) के प्रसिद्ध भट्टारकीय श्रतकीति की चौथी रचना है जिसका हमें अभी अभी शास्त्र भंडारमें उपलब्ध हुई है। नागौर शास्त्र भंडारकी परिचय मिला है यह रचना नई है। Jain Education International For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.527319
Book TitleAnekant 1953 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherJugalkishor Mukhtar
Publication Year1953
Total Pages28
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size10 MB
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