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________________ समन्तभद्र-वचनामृत [११] म्वामी समन्तभद्रने अपने समी वीन धमशास्त्रमें सम्यद्गर्शनके विषयभृत परमार्थ, आप्त, आगम और तपस्वी के लक्षणादिका निर्देश करते हुए जिस अमृतकी वर्षा की है उसका कुछ रसास्वादन माज अनेकान्तपाठकोंको उक्त धर्मशास्त्र के अप्रकाशित हिन्दी भाष्यसे कराया जाता है। -सम्पादक ] । परमार्थ प्राप्त-लक्षण) प्राचार्यने अपनी प्राप्तपरीक्षा और उसकी स्वोपज्ञ टीकामें आप्तेनोत्सन्न-दोषेण सर्वज्ञेनाऽऽगमेशिना। किया है, जिसमें ईश्वर-विषयकी भी पूरी जानकारी सामने श्रा जाती है और जिसका हिन्दी अनुवाद वीरसेवाभवितव्यं नियोगेन नाऽन्यथा ह्याप्तता भवेत॥५। मन्दिरसे प्रकाशित हो चुका है। अतः प्राप्तके इन लक्षणा__'जो उत्सन्न दोष है-राग-द्वष मोह और काम-क्रो- स्मक गुणोंका पूरा परिचय उक्त ग्रन्थसे प्राप्त करना धादि दोषोंको नष्ट कर चुका है-, सर्वज्ञ है-समस्त चाहिए। साथ ही, स्वामी समन्तभद्रकी प्राप्तमीमांसा' द्रव्य क्षेत्र-काल-भावका ज्ञाता है- और भागमेशी है- को भी देखना चाहिये, जिस पर अकलंकदेवने 'श्रष्टशती' हेयोपादेयरूप अनेकान्त-तत्वके विवेकपूर्वक प्रात्महितमें ओर विद्यानन्दाचार्यने 'भ्रष्टसहनी' नामकी महत्वपूर्ण प्रवृत्ति करानेवाले अबाधित सिद्धान्त-शास्त्रका स्वामी संस्कृत टीका लिखी है। अथवा मोक्षमार्गका प्रणेता है-वह नियमसे परमार्थ यहाँ पर इतनी बात और भी जान लेने की है कि इन आप्त होता है अन्यथा पारमाथिक आप्तता बनती तीन गुणोंसे भिन्न और जो गुण प्राप्तके हैं वे सब स्वरूपही नहीं-इन तीन गुणोंमेंसे एकके भी न होने पर कोई विषयक हैं-लक्षणात्मक नहीं । लक्षणका समावेश इन्हीं परमार्थ प्राप्त नहीं हो सकता. ऐसा नियम है।' तीन गुणोंमें होता है । इनमेंसे जो एक भी गुणसे हीन है ...व्याख्या-पूर्वकारिकामें जिस परमार्थ प्राप्तके श्रद्धानको वह प्राप्तके रूपमें लक्षित नहीं होता। मुख्यतासे सम्यग्दर्शनमें परिगणित किया है उसके लक्षण (उत्सन्नदोष प्राप्तस्वरूप) का निर्देश करते हुए यहां तीन खास गुणोंका उल्लेख किया चत्पिपासा-जरात-जन्माऽन्तक-भय-स्मया:। गया है, जिनके एकत्र अस्तित्वसे प्राप्तको पहचाना जा 'सकता है और वे हैं । निर्दोषता, २ सर्वज्ञता, ३ भागमे- न रागद्वेषमोहाश्च यस्याप्तः सप्रकीत्य ते(प्रदोषमुक) शिता । इन तीनों विशिष्ट गुणोंका यहाँ ठीक क्रमसे जिसके तुधा, तृषा, जरा, रोग, जन्म, मरण, निर्देश हा है-निर्दोशताके बिना सर्वज्ञता नहीं बनती भय, मद, राग, द्वेष, मोह तथा ('च' शब्दसे) चिन्ता; और सर्वज्ञताके बिना आगमेशिता असम्भव है । निर्दोषता अरति, निद्रा, विस्मय, विषाद, स्वेद और खेद, ये तभी बनती है जब दोषोंके कारणीभूत ज्ञानावरण, दर्शना. दोष नहीं होते हैं वह (दोषमुक्त) आप्तके रूपमें वरण, मोहनीय और अन्तराय नामके चारों घातिया कर्म प्रकीर्तित होता है। समूल नष्ट हो जाते हैं। ये कर्म बड़े बड़े भूभृतों (पर्वतों)- व्याख्या-यहां दोषरहित प्राप्तका अथवा उसकी की उपमाको लिये हुए हैं, उन्हें भेदन करके ही कोई इस निर्दोषताका स्वरूप बतलाते हुए जिन दोषोंका नामोल्लेख निर्दोषताको प्राप्त होता है। इसीसे तत्त्वार्थसूत्रके मंगला- किया गया है वे उस वर्गके हैं जो अष्टादश दोषांका वर्ग चरणमें इस गुणविशिष्ट प्राप्तको 'भेत्तर कर्मभूभृतां कहलाता है और दिगम्बर मान्यताके अनुरूप है। उन जैसे पदके द्वारा उसलेखित किया है। साथ ही, सर्वज्ञको दोषोंमेंसे यहां ग्यारहके तो स्पष्ट नाम दिये हैं, शेष सात 'विश्वतत्त्वानां ज्ञाता' और आगमेशीको 'मोक्षमार्गस्य दोषों चिन्ता, अरति, निढा, विस्मय, विषाद, स्वेद और नेता' पदोंके द्वारा उल्लेखित किया है। प्राक्षके इन तीनों खेदका 'च' शब्दमें समुच्चय अथवा संग्रह किया गया है। गुणोंका बड़ा ही युक्ति पुरस्सर एवं रोचक वर्णन श्रीविद्यानंद इन दोषोंकी मौजूदगी (उपस्थिति में कोई भी मनुष्य Jain Education International For Personal Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.527319
Book TitleAnekant 1953 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherJugalkishor Mukhtar
Publication Year1953
Total Pages28
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size10 MB
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