________________
१५२ ]
अनेकान्त
किरण ५
परमार्थ प्राप्तके रूप में ख्यातिको प्राप्त नहीं होता-विशेष निखिलार्थ-सादात्कारी), अनादिमध्यान्त (आदि मध्य ख्याति अथवा प्रकीर्तनके योग्य वहीं होता है जो इन और अन्तसे शून्य), सार्य (सर्वके हितरूप), और शास्ता दोषोंसे रहित होता है। सम्भवत: इसी दृष्टिको लेकर (यथार्थ तत्वोपदेशक) इन नामोंसे उपलक्षित होता है। यहां 'प्रक्रीयते' पदका प्रयोग हुअा जान पड़ता है । अथात् ये नाम उक्त स्वरूप प्राप्तके बोधक हैं.' अन्यथा इसके स्थान पर 'प्रदोषमुक्' पद ज्यादह अच्छा व्याख्या-प्राप्तदेवके गुणोंकी अपेक्षा बहुत नाम मालूम देता है।
-अनेक सहस्रनामों द्वारा उनके हजारों नामोंका कीर्तन श्वेताम्बर मान्यताके अनुसार अष्टादश दोषोंके नाम किया जाता है। यहाँ ग्रंथकारमहोदयने अतिसंक्षेपसे अपनी इस प्रकार हैं
रुचि तथा आवश्यकताके अनुसार पाठ नामोंका उल्लेख वीर्याम्तराय, भोगान्तराय, ३ उपभोगान्तराय, किया है, जिनमें प्राप्तके उक्त तीनों बक्षणात्मक गुणोंका ४ दानान्तराय, लाभान्तराय. ६ निद्रा, ७ भय, ८ ___ समावेश है-किसी नाममें गुणकी कोई दृष्टि प्रधान है, अज्ञान , जुगुप्सा १.हास्य ११ रति, १२ भरति, १३ किसी में दूसरी और कोई संयुक्त रष्टिको लिये हुए हैं। राग, १४ द्वेष, १५ अविरति, १६ काम, १७ शोक, १८ जैसे 'परमेष्ठी' और 'कृती' ये संयुक्त दृष्टिको लिए हुए मिथ्यात्व ।
नाम हैं, 'परंज्योति' और 'सर्वज्ञ' 'ये नाम सर्वज्ञत्वकी इनमेंसे कोई भी दोष ऐसा नहीं है जिसका दिगम्बर । दृष्टिको प्रधान किए हुए हैं। इसी तरह 'विराग' और समाज प्राप्तमें सद्भाव मानता हो। समान दोषों को छोड़- 'विमल' ये नाम उत्सन्नदोषत्वकी दृष्टिको और 'सार्व' तथा कर शेषका प्रभाव उसके दूसरे वर्गों में शामिल है जैसे अंत- 'शास्ता' ये नाम भागमेशिस्वकी दृष्टिको मुख्य किए हुए राय कर्मके अभावमें पाँचों अन्तराय दोषोंका, ज्ञानावरण हैं। इस प्रकारको नाममाला देनेकी प्राचीन कालमें कुछ कर्मके प्रभावमें अज्ञान दोषका और दर्शनमोह तथा चारित्र पद्धति रही जान पड़ती है, जिसका एक उदाहरण ग्रन्थकारमोहके अभाव में शेष मिथ्यात्व, शोक, काम अविरति रति, महोदयसे पूर्ववर्ती प्राचार्य कुन्दकुन्दके मोक्खपाहद' में हास्य, और जुगुप्सा दोषोंका प्रभाव शामिल है । श्वेतांबर और दूसरा उत्तरवर्ती प्राचार्य पूज्यपाद (देवनन्दी) के मान्य दोषोंमें सुधा तृषा, तथा रोगादिक कितने ही दिगंबर 'समाधितंत्र' में पाया जाता है। इन दोनों ग्रन्थों में परमा. मान्य दोषोंका समावेश नहीं होता-श्वेतांबर भाई प्राप्तमें त्माका स्वरूप देनेके अनन्तर उसकी नाममालाका उल्लेख उन दोषोंका सद्भाव मानते हैं और यह सब अन्तर उनके किया गया है - । टीकाकार प्रभाचन्द्रने 'आप्तस्यप्रायः सिद्धान्त भेदोंपर अक्लम्बित है। सम्भव है इस भेद- वाचिका नाममाला प्ररूपयन्नाह' इस वाक्यके द्वारा इसे दृष्टि तथा उत्सन्नदोष प्राप्तके विषयमें अपनी मान्यता प्राप्तकी नाममाला तो लिखा है परन्तु साथ ही प्राप्तका को स्पष्ट करनेके लिए ही इस कारिकाका अवतार हुश्रा एक विशेषण 'उक्तदोषैर्विवर्जितस्य' भी दिया है. जिसका हो। इस कारिकाके सम्बन्धमें विशेषविचारके लिये प्रन्धकी
कारण पूर्व में उत्सन्नदोषकी दृष्टिसे प्राप्तके लक्षणात्मक प्रस्तावनाको देखना चाहिए।
पद्यका होना कहा जासकता है; अन्यथा यह नाममाला एक (प्राप्त-नामावली)
मात्र उत्सम्नदोष प्राप्तकी दृडि.को लिए हुए नहीं कही परमेष्ठी परंज्योतिर्विरागो विमलः कृती। जा सकती, जैसा कि ऊपर दृष्टिके कुछ स्पष्टीकरणसे जाना सर्वज्ञोऽनादिमध्यान्तः सार्वः शास्तोपलाल्यते ॥७॥
जाता है। 'उक्त स्वरूपको लिये हुए जो प्राप्त है वह परमेष्ठी ४ उए लेख क्रमशः इस प्रकार है:(परम पदमें स्थित ), परंज्योति (परमातिशय- “मलरहियो कल्लचत्तो अणिदिनो केवलो विसुद्धप्पा । प्राप्त ज्ञामधारी), विराग (रागादि भावकर्मरहित), परमेट्ठी परमजियो सिवंकरो सासश्री सिद्धो ॥६॥" विमल (ज्ञानावरग्यादि न्यकर्मवर्जित), कृती (हेयोपादेय
(मोक्खपाहुर) तत्व-विवेक-सम्पन्न अथवा कृतकृत्य), सज्ञ (यथावत्
'निर्मलः केवलः शुद्धो विविक्तः प्रभुख्यः। . ® देखो, विवेकविलास और जैनतत्त्वादर्श आदि। परमेष्ठी परात्मेति परमात्मेश्वरो जिनः।। (समाधितंत्र)
Jain Education Interational
For Personal Private Use Only
www.jainelibrary.org