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________________ किरण ५ ] दिगम्बर जैन बोर्डिंग हाउसमें जा पहुँचे। वहाँ वेदी प्रतिष्ठा महोत्सवका कार्य सम्पन्न होनेसे स्थान खाली न था पं० सिद्धसागरजीका ५०० आदमियोंका एक संघ पहलेसे ठहरा हुआ था। फिर भी थोड़ा सा स्थान मिल गया उसीमें रात विताई । और प्रातःकाल उठकर सामयिक क्रियाओंसे निवृत्त होकर दर्शन किये । यहाँकी जनताने 'प्रीति भोज' भी दिया और मुख्तार साहबके दीर्घायु होने की कामना भी की। भट्टारक यशःकीति और पं० रामचन्द्रजी शर्मासे भी परिचय हुआ । हमारी तीर्थयात्रा के संस्मरण सबेरे अहमदाबादसे हम लोग राजकोट के लिये रवाना हुए और वीरमगाँव पहुँच गए । वीरमगांव से वडमानकी श्रर चले, परन्तु बीचमें ही रास्ता भूल गए जिससे ला० राजकृष्णजी और सेठ छदामीलालजीसे हमारा सम्बन्ध विच्छेद हो गया, वे पीछे रह गए और हम आगे निकल श्राये | रास्ता पगडियोंके रूपमें था, पूछने पर लोग वमानको दो गऊ या चार गौ बतलाते थे, परन्तु कई मोल चलनेके बाद भी वडमानका कहीं पता नहीं चलता था। इस कारण बड़ी परेशानी उठाई । जब ५-६ मील चलकर लोगोंसे रास्ता पूछते तो वे ऊपर वाला ही उत्तर देते । आखिर कई मीलका चक्कर काटते हुए हम लोग १॥ बजेके करीब वडमान पहुँचे । परन्तु वहाँका पानी . अत्यन्त खारी था । आखिर एक श्वेताम्बर मन्दिर में पहुँचे, उनसे पूछा, ठहरनेकी अनुमति मिल गई, हम लोगोंने नहा धोकर दर्शन सामायिकादिसे निवृत्त होकर साथ में रखे हुए भोजनसे अपनी छुधा शान्त की । वहांके संघने मीठे पानी की सब व्यवस्था की। वे साधर्मी सज्जन बड़े भद्र प्रकृतिके जान पड़ते थे । वहाँसे हम लोग चलकर रात्रि में १ बजेके करीब 'राजकोट' पहुँचे और कानजी स्वामीके उपदेशसे निर्मित नूतन मंदिर के अहाते में स्थित कमरों में ठहरे | राजकोट निवासी ब्र० मूलशंकरजीके साथ में होनेसे हम लोगोंको ठहरनेमें किसी प्रकारकी असुविधा नहीं हुई । प्रातःकाल दैनिक क्रियाओं से निवृत्त होकर मंदिरजीमें श्रीमंधरस्वामोको भव्य मूर्तिके दर्शन किये । मूर्ति बड़ी ही मनोश और चित्ताकर्षक है, मूर्तिका अवलोकन कर हम 'योग मार्गजन्य खेदको भूल गये, हृदयकमल खिल गये, उक्त मूर्तियोंके दर्शनसे अभूत पूर्व आनन्द हुआ । वास्तवमें मूर्ति कलाकारके मनोभावोंका मूर्तिमान चित्रण है । Jain Education International [ १६५ साथमें यह भी विचार आया कि प्रत्येक मन्दिर में इसी प्रकारकी चिशाकर्षक मूर्तियाँ होनी चाहिये और मन्दिर इसी तरह सादा तथा धर्मसाधनकी श्रम्य सुविधाओं को लिये होने चाहिये । राजकोटका यह मन्दिर दो ढाई लाख रुपया खर्च करके गुजरातके संत श्रीकानजीस्वामी के उपदेशसे अभी बनकर तैयार हुआ है । मन्दिर सादा, स्वच्छ. हवादार और धर्मसाधनके लिये उपयुक्त है, श्रीमन्धर स्वामीकी उक्त मूर्तिका चित्र भी लिया गया है। ब्रह्मचारी मूलशंकरजी के यहां हम लोगोंने भोजन किया । उस समय ब्रह्मचारीजीके कुटुम्बका परिचय पाकर बड़ी प्रसन्नता हुई मूलशंकरजीने अपने हरे-भरे एवं सुख समृद्ध परिवारोंको छोड़कर प्रात्मकल्याणकी दृष्टिसे अपनेको व्रतोंसे अलंकृत किया। उनके दोनों लड़के पोते और पोती तथा धर्मपत्नी सभी शान्त और धर्मश्रद्धालु जान पड़े । उनके समस्त परिवारका संयुक्त चित्र भी लिया गया है। राजकोट मुजरातका एक अच्छा शहर है, यहाँ सभी प्रकारकी चीजें मिलती हैं नगर समृद्ध है, अहमदाबादकी अपेक्षा अधिक साफ-सुथरा है । यहांके जैनियों पर कानजीस्वामीके उपदेशोंका अच्छा असर है । दुपहरके बाद हम लोग राजकोटसे रवाना होकर गोधरा होते हुए मूनागढ़ पहुँचे और वहांसे गिरनारजोकी तलहटीमें स्थित धर्मशाला में गए। वहां देखा तो दिगम्बर धर्मशाला यात्रियोंसे ठसाठस भरी हुई थी । उसमें स्थान न मिलने पर हम लोग श्वेताम्बर धर्मशाल में ठहरे | प्रातःकाल ३ बजेके करीब दैनिक कृत्योंसे निपटकर हम लोग यात्राको गए और हम लोगोंने पहाड़ पर चढ़कर सानन्द यात्राएँ की । यात्रामें बढ़ा ही आनन्द श्राया । मार्गजन्य कष्टका किंचित् भी अनुभव नहीं हुआ । गिरिनगर या गिरिनारका प्राचीन नाम 'उज्जयंत' 'ऊर्जयन्त' गिरि है। रैवतकगिरि और गिरिनगर नामोंका कब प्रचलन हुआ इसका ठीक निर्देश अभी तक नहीं मिला, किन्तु इतना स ष्ट है कि विक्रमकी 8वीं शताब्दी के प्राचार्य वीरसेनने अपनी धवला टीकामें 'सोरट्ठविषय - गिरिणयर -- पट्टण चंद्रगुहा-ठिएण' वाक्यके द्वारा सौराष्ट्र देशमें स्थित गिरिनगर का उल्लेख किया हैं जिससे स्पष्ट ध्वनित होता है कि उस समय तथा उससे पूर्व 'गिरिनगर' शब्दका प्रचार हो चुका था । गिरिनगर सौराष्ट्र देश की वह पवित्र भूमि है जिस पर जैनियोंके २२ में तीर्थंकर भगवान नेमिनाथने तपश्चर्या For Personal & Private Use Only www.jainelibrary.org
SR No.527319
Book TitleAnekant 1953 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherJugalkishor Mukhtar
Publication Year1953
Total Pages28
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size10 MB
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