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________________ 174] अनेकान्त [किरण / इस भाँति वस्तु सामान्य विशेषत्मिक है। सामान्या- पर विरुद्धताका भाभास नहीं होता किन्तु विरोध एकान्तपेक्षासे वस्तुमें अभेद और विशेषापेक्षासे उसमें भेद सिद्ध दृष्टिके अपनानेसे ही होता है। एकान्तता ही असाधुता है होता है। सर्वेषां जीवनां समाः" अर्थात् सब जीव उससे मात्मा संसारका ही पात्र बना रहता है। समान हैं यह कहनेका तात्पर्य जीवत्वगुणाकी अपेक्षासे है। जीव और पुद्गल के संसर्गसे यह संसारावस्था हुई है। यही जीवत्व सिद्धावस्थामें भी है और संसारीजीवीके जीव अपने विभावरूप परिणमन कर रागी-द्वेषी हुआ है संसारावस्थामें भी है परन्तु जहाँ सब सिद्ध अनंतसुखके और पुद्गल, अपने विभावरूप. और इस तरह इन दोनोंधारी हैं वहाँ हम संसारी जीव तो नहीं हैं। हम दुःखी हैं। का बन्ध एक क्षेत्रावगाही हो गया है। इस अवस्थामें बह सब नय विभागका कथन है। जब हम विचार करते हैं तब मालूम पड़ता है कि यह एक माताको श्राप जिस दृष्टि से देखते हैं तो क्या प्रारमा बद्धस्पृष्ट भी है और अबद्ध स्पृष्ट भी / कर्मसम्बन्ध. अपनी स्त्रीको भी उसी दृष्टिसे देखेंगें? और कदा. की दृष्टिसे विचार करते हैं तो यह बद्धस्पृष्ट भूतार्थ है, चित् श्राप मुनि हो जाये तो क्या फिर भी आप उसी तरह इसमें सन्देह नहीं. और जब केवल स्वभावकी दृष्टिसे देखते से कटाक्ष करेंगे ? ये महाराज हैं (प्राचार्य सूर्यसागर जी हैं तो यह अभूतार्थ भी है / सरोवरमें कमलिनीका जिसको की ओर संकेत कर) किसी गृहस्थी के यहाँ जब ये चर्या- जलस्पर्श हो गया है इस दृष्टिसे विचार करते हैं तो वह के निमित्त जाते है तो श्रावक किस बुद्धिसे इन्हें आहार पत्र जलमें लिप्त है यह भूतार्थ है परन्तु जलस्पर्श छू नहीं दान देता है। और वही श्रावक किसी क्षुल्लक ( एकादश सकता है जिसको ऐसे कमलिनीके पत्रको स्वभावकी दृष्टिसे प्रतिमा-धारी श्रावक) को किस बुद्धिसे देता है और अवलोकन करते हैं तो यह अभूतार्थ है क्योंकि वह जलसे कदाचित-वह श्रावक किसी कङ्गालको आहार देवे तो अलिप्त है। अतः अनेकांतको अपनाए बिना वस्तु-स्वरूपवह किस बुद्धिसे देगा। मुनिको वह श्रावक पूज्य बुद्धिसे को समझना दुश्वार है। नानापेक्षासे प्रात्म-ज्ञान करना पाहारदान देवेगा और उस कङ्गलेको वह करुणाबुद्धिसे, क्या बड़ी बात है 'समाधितन्त्र' में श्रीपूज्यपादस्वामी काला यदि उससे यह कहे कि मैं इस तरहसे आहार नहीं लिखते हैं-- . लेता। मै तो उसी तरह नवधा भक्ति पूर्वक लूगा, जिस यन्मया दृश्यते रूपं तन्न जानाति सर्वथा / तरह तुमने मुनिको दिया है तो अब हम आपसे पूछते हैं जानन दृश्यते रूप ततः केनं ब्राम्य,म् / / क्या हम उसी तरह आहार दे देवेंगे ? नहीं। उससे यहीं अर्थात् इन्द्रियोंके द्वारा जो यह शरीरादिक पदार्थ कहेंगे कि भाई ! अगर तूं भी-मुनि बन जाय और दिखाई देते हैं वह अचेतन होनेसे जानते नहीं है / और जो हर्यापथ शोधकर चलने लगे तो तुझे भी दे सकते हैं। पदार्थों को जानने वाला चैतन्यरूप श्रोत्मा है वह इन्द्रियोंके तिलकने "गीता-रहस्य" में लिखा है कि 'गो-ब्राह्मण- द्वारा दिखाई नहीं देता, इसलिए मैं किसके साथ बात की रमा करनी चाहिये। गौ और ब्राह्मण दोनों जीव हैं करूं / यह पण्डितजी हैं; इनसे हम बात करते हैं तो तक्या इसका मतलब यह हुआ कि गौका चारा ब्राह्मणको जिससे हम बात कर रहे हैं वह तो दिखता नहीं है और है देखें और जहाणका हलुआ गायको डाल देवेंद्रव्यका जिससे हम बात कर रहे हैं वह अचेतन होनेसे समझता संकअपेक्षासे कथन किया जाता है। कोई वस्तु किस नहीं है। इसलिए सब झंझटोंसे छटकार विभावभावोंका अपेवासे कही गई है यह हम समझलेवें तो संसारमें कभी परित्यागन कर स्वभाव में स्थिर रहनेका यह क्या ही उत्तम विसंवादही पैदा न हो। उपाय है / वही स्वामीजी आगे लिखते हैंयह सड़का किसका है ? क्या यह अकेली स्त्री का ही यत्परैः प्रतिपाद्योऽहं यत्परान् प्रतिपादये। नहीं तो क्या केवल पुरुष का है नहीं! दोनों (स्त्री उन्मत्तचेष्टितं तन्मे यदह निर्विकल्पकः॥ पुरुष) के संयोगावस्थासे लड़का उत्पन्न हुआ है। जिए जो प्रतिपादन करता है वह तो प्रतिपादक कहलाता है सरह यह सब कथन सापेक्ष है उसी तरह साधुता और और जिसको प्रतिपादन करना चाहते हैं वह प्रतिपाद्य कहप्रसाधुताका कथन भी सापेक्ष है। क्योंकि वस्तुका स्वभाव लाता है। तो कहते है कि यह सब मोही मनुष्योंकी अनन्त धर्मारमक है उनका सापेक्षदृष्टिसे व्यवहार करने पागलों जैसी चेष्टा है। यदि ऐसा ही है तो हम उन्हींसे Jain Education International www.jainelibrary.org For Personal & Private Use Only
SR No.527319
Book TitleAnekant 1953 10
Original Sutra AuthorN/A
AuthorJugalkishor Mukhtar
PublisherJugalkishor Mukhtar
Publication Year1953
Total Pages28
LanguageHindi
ClassificationMagazine, India_Anekant, & India
File Size10 MB
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