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अनेकान्त
किरण ५३
फुटनोटोंमें उसके विषय के स्पष्टी करसकी सूचना भी दूसरे सिंह कविने अपनी रचना, बंभणवाड (सिरोही) दी गई है। इस कारण टीका सरल और विद्याथियोंके में वहांके गुहिल वंशीय राजा भुल्लणके राज्यक ख में, ' लिये सुगम होगई है-उसकी सहायतासे वे प्रन्थके जो मालव नरेश बल्लालका मांडलिक सामन्त था और विषयको सहज ही समझ सकते हैं। यह संस्करण अपने जिसका राज्यकाल विक्रम संवत् १२०० के पास पास पिछले संस्करणों की अपेक्षा संशोधन दिके कारण खास पाया जाता है। अपनी विशेषता रखता है।
बाल्लालकी मृत्युका उल्लेख अनेक प्रशस्तियोंमें प्रस्तावनामें प्राचार्य अमृतचन्द्रका परिचय देते हुए
मिलता है। बड़नगरसे प्राप्त कुमारपाल प्रशस्तिके १५ उन्हें विक्रमकी १२वीं शताब्दीका विद्वान सूचित किया
श्लोकोंमें बल्लाल और कुमारपालकी विजयका उल्लेख गया है, जो ऐतिहासिक दृष्टिसे विचारणीय है ।
किया गया है और लिखा है कि कुमारपालने बलालका जबकि पट्टावली में प्राचार्य अमृतचन्द्रको विक्रमकी .वीं
मस्तक महल के द्वार पर लटका दिया था। चूंकि शताब्दीका विद्वान बतलाया गया है। साथ ही, प्रेमीजीने
कुमारपालका राज्यकाल वि. सं. ११६६ से वि० सं० ग्रन्थ कर्ताक सम्बन्ध में नया प्रकाश डालते हुए, पज्जुण्ण
१२२६ तक पाया जाता है और इस बड़नगर प्रशस्तिका चरिउके कर्ता सिंहकविके गुरु मलधारी माधवचन्द्र के
काल सन् १११ (वि० सं० १२०८). है । अतः शिष्य अमि या अमृतचन्द्रको पुरुषार्थसिद्धयुपायके कर्ता
बल्लाल की मृत्यु ११५१ A. D. (वि० सं० १२०८) होनेकी संभावना भी व्यक्त की है।
से पूर्व हुई है। परन्तु ऐतिहासिक दृष्टिसे प्रेमीजीकी उक्त धारणा
कुमारपाल, यशोधवल, बल्लाल और चौहान राजा
अर्णोराज ये सब राजा समकालीन हैं । अतः ग्रन्थअथवा कल्पना संगत प्रतीत नहीं होती; क्योंकि प्रथम तो
प्रशस्तिगत कथनको दृष्टिमें रखते हए यह प्रतीत होता अमृतचन्द्रका समय विक्रम संवत् १०५५ से बादका नहीं
है कि उक्त प्रद्युम्नचरित की रचना वि० सं० १२०८ से हो सकता। कारण कि 'धर्मरत्नाकर' के कर्ता जयसेनने जो
पूर्व हो चुकी थी। बाल वागरसंघके विद्वान भावसेनके शिष्य थे । जयसेनने अपना उक्त ग्रंथ वि•संवत् १०१५ में बनाकर समाप्त किया
ग्रन्थ प्रशस्तिमें उल्लिखित अमृतचन्द्र. माधवचन्द्र के
शिष्य थे जो 'मलधारी' उपाधिसे अलंकृत थे । भट्टारक है। उस ग्रन्थमें प्राचार्य अमृतचन्द्र के पुरुषार्थसिद्धयुपाय के ५६ पद्य पाये जाते हैं। साथ ही, सोमदेवाचार्यके
अमृतचन्द्र तप तेज रूपी दिवाकर, व्रत नियम तथा शीलके यशस्तिलकचम्पूके भी... से ऊपर पद्य उद्धत हैं।
रत्नाकर (समुद्र) थे। तर्क रूपी लहरोंसे जिन्होंने परमतको
मंकोलित कर दिया था-डगमगा दिया था जो उत्तम अतः अमृतचन्द्रका समय वि० सं० १०५५ से बादका
व्याकरणरूप पदोंके प्रसारक थे । और जिनके ब्रह्मचर्य के नहीं हो सकता » ।
तेजके आगे कामदेव दूरसे ही बंकित (खंडित) होनेकी अब रही, 'पज्जुण्णचरिउके कर्त्ता सिंहकविके गुरु
श्राशंकासे मानों छिप गया था-कामदेव उक्त मुनिके अमृतचन्द्र के साथ एकत्व की बात । सो दोनों अमृतचन्द्र
प्रचण्ड वेजके अमृतचन्द्र भागे पा नहीं सकता था। भिन्न २ व्यक्ति हैं । पुरुषार्थसिद्धयुपायके कर्ताको ५०
अर्थात् मुनि पूर्ण ब्रह्मचारी थे। अाशाधर जीने 'ठक्कुरोप्याह' वाक्यके साथ उल्लेखित
आचार्य अमृतचंद्रके गुरुका अभी तक कोई नाम ज्ञात किया है जिससे वे ठाकुर-क्षत्रिय राजपूत ज्ञात होते हैं।
नहीं हुआ। वे अध्यात्मवादके अच्छे ज्ञाता और प्राचार्य जब कि 'पज्जुरणचरिउकी प्रशस्तिमे ऐसी कोई बात
कुन्दकुन्दके प्रभृतत्रयके अच्छे मर्मज्ञ थे । न्यायशास्त्रके नहीं है।
भी विद्वान थे । परन्तु वे प्रद्युम्न चरितके कर्तासे बहुत ® देखो. अनेकान्त वर्ष - किरण ४-५ में 'धर्मरत्नाकर पहले हो गए हैं। उनका समय विक्रमकी १०वीं . और जयसेन नामके प्राचार्य नामका लेख ।
शताब्दीसे बाद नहीं हो सकता। x देखो अनेकान्त वर्ष ८ कि.१.-1 में प्रकाशित
परमानन्द जैन शास्त्री 'महाकविसिंह और प्रद्युम्नचरित' नामका लेख
देखो, सन् १५७ की बढ़ नगर प्रशस्ति ।
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