Book Title: Adarsha Hindi Sanskrit kosha
Author(s): Ramsarup
Publisher: Chaukhamba Vidyabhavan

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Page 792
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir [७५४ ] - किया गया है। कृति का प्रेमि प्रेमविषयक अंश भास-कृत 'दरिद्र चारुदत्त' से बहुत अधिक प्रभावित है परन्तु राजनीतिक भाग कवि की निजी सम्पदा है। 'मृच्छकटिक' की सबसे बड़ी विशेषता उसकी प्राकृत भाषा है। जितनी प्राकृत इस नाटक में प्रयुक्त हुई है उतनी अन्य किसी में भी नहीं । नाटक में पात्रों का चरित्र तथा समाज का चित्र सरल शैली में सम्यक् चित्रित किया गया है । नाटक का प्रधान रस शृङ्गार है। श्रीहर्ष-श्रीहर्ष का जन्म हीर पण्डित और मामल्लदेवी के गृह में हुआ था। हीर पण्डित कान्यकुब्जेश्वर जयचंद्र के पिता विजयचंद्र की सभा के प्रधान पण्डित थे परन्तु संयोगवश मैथिल नैयायिक उदयनाचार्य से शास्त्रार्थ में पराजित हो गये थे। मरणासन्न हीर ने पुत्र को कहा-- 'यदि तुम सुपुत्र हो तो मेरे विजेता को पराजित करना' श्रीहर्ष ने गंगातट पर विन्तामणि मंत्र का वर्ष-भर जप किया और सफलमनोरथ हुए। श्रीहर्ष जयचंद्र की सभा के रत्न तो थे ही, सम्भवतः विजयचन्द्र की सभा को भी सुभूषित करते रहे होंगे, क्योंकि उन्होंने 'विजयप्रशस्ति' उन्हीं के नाम पर रची है। ये रससिद्ध कवि ही न थे, प्रकाण्ड पण्डित भी थे, जैसा कि इनके 'खण्डनखण्डखाद्य' से सिद्ध होता है। इनका सिद्ध योगी होना नैषधकान्य के अन्त्य श्लोक से सिद्ध होता है-- यः साक्षात् कुरुते समाधिषु परं ब्रह्म प्रमोदार्णवम् । इनका आविर्भावकाल बारहवीं शती का उत्तरार्द्ध है। श्रीहर्ष ने अपनी कृतियों का उल्लेख 'नैषध' में इस कम से किया है-१) स्थैर्यविचारणप्रकरण (दर्शन), (२) विजयप्रशस्ति, (३) खण्डनखण्ड खाध (वेदान्त), (४) गौडोर्वीशकुलप्रशस्ति, (५) अर्णवव गन, (६) छिन्दप्रशस्ति, (७) शिवशक्तिसिद्धि, (८) नवसाहसांकचरित चम्पू, (९) नैष. धीयचरित । सुविख्यात 'नैषधीय चरित' में २२ सर्ग हैं और २८३० श्लोक । इसमें नल-दमयन्ती की कथा का सरस तथा सुविस्तृत वर्णन है। नैषध में वैदग्ध्य तथा पाण्डित्य का अद्भुत मिश्रण है । वक्रोक्ति के प्रयोग में श्रीहर्ष विशेष कुशल हैं। भाव-पक्ष तथा कला-पक्ष दोनों की अभिव्यक्ति नैषधकाव्य में मार्मिक ढंग से की गई है। किसी आलोचक का यह पद्य नैषध के महाभाष्य का सच्चा निदर्शक है तावद्धा भारवे ति यावन्माघस्य नोदयः । उदिते नैषधे काव्ये क माघः क च भारविः ॥ सुबन्धु-अविदित-वृत्त सुबन्धु अपने एकमात्र गध काव्य 'वासवदत्ता' से अक्षय कीर्ति के भागी बने हैं। इस काव्य की कथा का वासवदत्ता की प्राचीन कथा से राई-रत्ती मात्र का भी सम्बन्ध नहीं है। पूर्ण कथानक कवि के उर्वर मस्तिष्क की कल्पना है। अनुमानतः इसकी रचना सातवीं शती के प्रथम चरण में की गई थी। अति संक्षेप में कथा यह है कि राजकुमार चिन्तामणि स्वप्न में एक सुन्दर कन्या को देखकर मुग्ध हो जाता है और जगने पर मित्र मकरन्द के साथ उसकी खोज में निकल पड़ता है। उधर कुसुमपुर की राजकुमारी वासवदत्ता भी स्वप्न में एक सुरूप युवक को देखकर स्वयंवर में आये युवकों का विचार त्याग देती है। कई विघ्न-बाधाओं के अनन्तर प्रेमियों का सुखद मिलन हो जाता है। 'वासवदत्ता' एक वर्णनबहुल आख्यायिका है जिसमें उपमा, उत्प्रेक्षा और विरोषाभास की बहुलता है परन्तु सभंग या अभंग श्लेष तो प्रतिपद पाया जाता है जहाँ कवि की कल्पना प्रशंसनीय है, वहाँ श्लेष की 'अति' तथा तज्जनित दुरूहता अरुचिकर हो गई है। सोड्ढल-ये गुजरात के लाटप्रदेश के निवासी थे और कोकगाधीश मुम्मुणिराज (१०६० ई०) के आश्रित थे। इनका 'उदयसुन्दरीकथा' चम्पूकाव्य है जिसमें प्रतिष्ठान-नरेश मलयवाहन और नागनृप शिखण्डतिलक की पुत्री उदयसुन्दरी के विवाह का वर्णन है। कृति बाण के हर्षचरित For Private And Personal Use Only

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