Book Title: Adarsha Hindi Sanskrit kosha
Author(s): Ramsarup
Publisher: Chaukhamba Vidyabhavan

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Page 796
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir [७५८] - १३. आशामोदकतृप्तन्याय-इस न्याय का अर्थ है--प्रत्याशित लड्डुओं से तृप्त मनुष्य का दृष्टान्त । लड्डू खाने पर ही प्रसन्नता का प्रकाशन उचित है। जो मनुष्य काल्पनिक लड्डुओं से तृप्ति का अनुभव कर मुदित होता है, वह सयाना नहीं माना जाता। सो वास्तविक और काल्प. निक प्रसन्नता में भेद करना ही समीचीन है। जैसे-को नाम व्यवहारपटुर्मानवो जगत्याशामोदकैस्तृप्तो दृश्यते। १४. इषुकारन्याय-इस न्याय का अर्थ है, बाण बनानेवाले का दृष्टान्त । यह न्याय महाभारत के शान्तिपर्व के १७८३ अध्याय के निम्नलिखित श्लोक पर आधृत है-'इषुकारो नरः कश्चिदिषावासक्तमानसः । समीपेनापि गच्छन्तं राजानं नावबुद्धवान् ।' भाव यह कि एक बाणनिर्माता वाणनिर्माण में इतना निमग्न था कि वह पास से जाते हुए राजा को भी न देख सका। इसी प्रकार की एकाग्रचित्तता के लिए यह न्याय व्यवहृत होता है। यथा-'विद्याव्रतः स्वग्रन्थाध्ययन इत्थं निमग्न आसीत् यदिषुकारन्यायेन कक्षायामागतमध्यापकमपि न ज्ञातवान् ।' १६. इषुवेगक्षयन्याय :-इस न्याय का अर्थ है-बाणवेग के नाश का दृष्टान्त। धनुष से फेंके हुए बाण की गति क्रमशः क्षीण होती जाती है और अन्ततः समाप्त हो जाती हैं। इसी प्रकार जहाँ किसी पदार्थ में कारणवशात् जात-क्रिया आदि का क्रमशः हास और अन्त में विनाश हो जाता है, वहाँ यह न्याय प्रयुक्त होता है, यथा--'इयं सृष्टिरिषुवेगक्षयन्यायेन कालेन स्वयमेव प्रलयमुपैति।' १६. उत्खातदंष्ट्रोरगन्याय :-उक्त न्याय का अर्थ है, निर्दन्त किये हुए सर्प का दृष्टान्त । दाँत उखाड़ देने पर सर्प की भयंकरता नष्ट हो जाती है। इसी प्रकार जहाँ किसी घातक पदार्थ के मनिष्टकर अङ्ग का निवारण कर उसको घातकता नष्ट कर दी जाती है, वहाँ इस न्याय का व्यवहार होता है। यथा-'इन्द्रप्रदत्तशक्त्या घटोत्कचं हत्वा कर्णः पाण्डवेभ्य उत्खातदंष्ट्रोरगवत् निरुपद्रवः संजातः।' १७. उष्ट्रलगुडन्याय :-उक्त न्याय का अर्थ है- ऊँट और लकड़ी का दृष्टान्त । ऊँट पर लकड़ी का भार प्रायः लादा जाता है। आवश्यकता के समय उन्हीं में से एक लकड़ी निकालकर ( उष्ट्रचालक ) ऊँट को पीट भी देता है। इसी प्रकार जहाँ विरोधी की युक्ति से ही विरोधी की उक्ति का खंडन कर दिया जाये अथवा वैरियों के उपकरण से ही वैरियों का नाश कर दिया जाये, वहाँ यह न्याय व्यवहृत होता है। जैसे—'शक्तो गृहस्थ उष्ट्रल गुडन्यायेन चौरशस्त्रेणैव चौरं गतासुमकरोत् ।' १८. ऊपरवृष्टिन्याय :-इस न्याय का अर्थ है, बंजर में वर्षा का दृष्टान्त । भूमि उर्वरा हो तो वृष्टि सफल होती है। ऊषर में बरसना न बरसना बराबर है। इसी प्रकार जहाँ कोई कार्य सर्वथा बेकार हो वहाँ यह न्याय प्रयुक्त होता है । यथा-'इमाः सुधास्यन्दिन्यः सूक्तयोऽरसिकेभ्य कपरवृष्टिवन्निष्फलाः।' १६. एकवृन्तगतफलद्वयन्याय :-उक्त न्याय का अर्थ है, एक डंठल पर लगे दो फलों की उक्ति। जैसे एक डंठल पर कभी-कभी दो भी फल लग जाते हैं, वैसे ही जब श्लेष आदि के बल से कोई शब्द दो अर्थ देता है या एक क्रिया फलयुग्म की साधिका होती है, तब यह न्याय व्यवहृत होता है। यथा- एकवृन्तगतफलद्वयन्यायेन देवदत्त आङ्गलदेशमप्यपश्यद् भारतीयबालचराणां प्रतिनिधित्वमपि चाकरोत् ॥' २०. कदंबकोरक(गोलक)न्याय :-कदंबकोरकन्याय अर्थात् कदंब की कलियों का न्याय । कहा जाता है कि कदंब की सब कलियाँ एक साथ विकसित हो उठती हैं। इसी प्रकार जहाँ For Private And Personal Use Only

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