Book Title: Adarsha Hindi Sanskrit kosha
Author(s): Ramsarup
Publisher: Chaukhamba Vidyabhavan

View full book text
Previous | Next

Page 804
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir [७६६ ] ७०. वीचितरंगन्याय :-वीचितरंगन्याय अर्थात् तरंग और तरंग का न्याय। नदी, सरोवर, समुद्र आदि में हम देखते हैं कि तरंगे क्रमशः एक दूसरी को तब तक आगे-आगे ढकेलती जाती हैं जब तक वे सब तट तक नहीं जा पहुँचतीं । इसी प्रकार जब कुछ वस्तुएँ या व्यक्ति एक-दूसरे की सहायता से गन्तव्य तक जा पहुँचते हैं, तब इस न्याय का निम्नलिखित प्रकार से प्रयोग किया जाता है-'वोचितरंगन्यायेन अन्योऽन्योपकारि खलु सकलमिह जीवितम् ।' ७१. वृद्ध कुमारीवाक्य(वर)न्याय :-वृद्धकुमारोवाक्यन्याय अर्थात् बूढ़ी कन्या के वर का न्याय । पतंजलि ने महाभाष्य में लिखा है कि जब इन्द्र ने एक बूढ़ी कन्या को वर माँगने को कहा तब वह बोली-'पुत्रा मे बहुक्षीरघृतमोदनं काञ्चनपाठयां भुजीरन्' अर्थात् मेरे पुत्र सुवर्ण -के पात्रों में प्रभूत दूध और घी से युक्त चावल खावें। अब यदि यह वर प्राप्त हो जाए तो पति, सन्तान, गौ, दूध, घी, सुवर्ण आदि सभी पदार्थ स्वतः एव प्राप्त हो जाते हैं। इसी प्रकार जहाँ कोई ऐसी वस्तु माँगी जाए जिसके साथ अनेक उपयोगी द्रव्यों की प्राप्ति अनिवार्य हो जाए, वहाँ इस न्याय का प्रयोग होता है। जैसे-'स्वपौत्रं राजसिंहासनस्थमीक्षितुमिच्छामीति वरं देवं याचमानेनान्धवृद्धेन आत्मनः कृते यौवनं नेत्रे पत्नी पुत्रः पौत्रश्च वृतः।' .७२. व्यालनकुलन्याय :-इस न्याय का अर्थ है-साँप और नेवले की कहावत। साँप और नेवले में जन्मजात वैर होता है। वे जहाँ एक-दूसरे को देखते हैं, लड़ पड़ते हैं। उन्हीं की तरह जब दो वस्तुओं में स्वाभाविक वैर हो तब व्यालनकुलन्याय ( अहिनकुलन्याय) का व्यवहार होता है । यथा-'अद्यत्वे तु रूसामरीकयोर्दशाव्यालनकुलबद् दृश्यते।' ७३. शतपनपत्रशतभेदन्याय :-उक्त न्याय का अर्थ है-कमल के सौ पत्रों को छेदने का दृष्टान्त । जब कोई व्यक्ति कमल के सौ कोमल पत्रों को सूए से छेदता है तब ऐसा लगता है कि सब पत्र एक-साथ ही छिद गये हैं। परन्तु वस्तुतः छिदते एक दूसरे के अनन्तर ही हैं । इसी प्रकार जहाँ क्रमशः होने वाली अनेक क्रियाओं का एक साथ होना कहा जाता है, वहाँ यह न्याय व्यवहृत होता है। जैसे-'पतिं मृतं श्रुत्वा सा साध्वी कम्पिता मूच्छिता मृता च शतपत्रपत्रशतभेदन्यायेन ।' ७४. शलभन्याय :-इस न्याय का अर्थ है पतंगे का दृष्टान्त । मूर्ख पतंगा जलते हुए दीपक को देख ऐसा मुग्ध होता है कि प्राणों तक को चिन्ता नहीं करता। इसी प्रकार मूर्ख लोग विषयों से आकृष्ट होकर प्राणों से हाथ धो बैठते हैं। आजकल इसका प्रयोग प्रशंसा के लिए भी किया जाता है। दोनों के दृष्टान्त एक ही वाक्य में देखें-विषयेषु शलभायन्ते मूढाः, प्रमदासु कामुकाः, राष्ट्रसेवायां च राष्ट्रभक्ताः। ७५. शाखाचन्द्रन्याय :-शाखाचन्द्रन्याय अर्थात वृक्ष की शाखा भौर चाँद का न्याय । आकाश में चन्द्र तो बहुत दूर होता है परन्तु प्रतिपदा आदि के दिन किसी को दिखाने के लिए प्रायः कहा जाता है--'देखो, वह वृक्ष की शाखा के ऊपर है। इसी प्रकार जहाँ कोई पदार्थ हो तो बहुत दूरवती पर उसको दिखाने के लिए ऐसे पदार्थ की ओर संकेत किया जाय जो उसके समीप प्रतीत होता हो, वहाँ यह न्याय प्रयुक्त होता है। जैसे-'शाखा चन्द्रन्यायेन पेरिसनगरमपि रोमसमीपवर्तिनमेव ज्ञापयति कोऽपि मानचित्रे ।' ७६. शिरोवेष्टनेन नासिकास्पर्शन्याय :-उक्त न्याय का अर्थ है--बाहु को सिर के पीछे से लाकर नाक को छूने का दृष्टान्त । नाक को सामने से छूना सुकर है, बाहु पीछे से लाकर छूना दुष्कर । जब उद्देश्य केवल नासिकास्पर्श हो तो बाहु को सिर के पीछे से लाकर छूने में कोई लाभ नहीं है। इसी प्रकार कई लोग किसी कार्य को सीधे ढङ्ग से नहीं करते, घुमा-फिराकर व्यर्थ कष्ट For Private And Personal Use Only

Loading...

Page Navigation
1 ... 802 803 804 805 806 807 808 809 810 811 812 813 814 815 816 817 818 819 820 821 822 823 824 825 826 827 828 829 830 831