Book Title: Adarsha Hindi Sanskrit kosha
Author(s): Ramsarup
Publisher: Chaukhamba Vidyabhavan

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Page 798
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir । ७६० ] %3 - प्रकार इस न्याय का व्यवहार वहाँ होता है। जहाँ वाक्य के किसी शब्द का अन्वय एक से अधिक तरफ किया जाय अथवा कोई व्यक्ति आवश्यकतानुसार एक से अधिक पक्षों से सम्बन्ध रखे । यथा-'बलिनोद्विषतोर्मध्ये वाचात्मानं समर्पयन् । द्वैधीभावेन वर्तेत काकाक्षिवदलक्षितः॥" (कामन्दकीय नीतिसार : ९।२४) २८. कुल्याप्रणयनन्याय :-शब्दार्थ है-कूलनिर्माण का न्याय। किसान लोग अपने खेतों की सिंचाई के लिए ही नदी-नालों से कूल निकालते हैं। परन्तु प्यास लगने पर उसमें से पानी पी भी लेते हैं। इसी प्रकार जहाँ एक उद्देश्य से किये हुए कार्य से दूसरा कार्य भी सिद्ध कर लिया जाय वहाँ इस न्याय का प्रयोग करते हैं। यथा-'सद्भावेन देशसेवायां रता नेतारः कदाचित् कुल्याप्रणयनन्यायेन संसत्सदस्या अपि जायन्ते ।' २६. कूपमंडूकन्यायः-इस न्याय का अर्थ है कुएँ के मेढक की कहावत। कूएँ का मेढक कूएँ में रहता है, इसलिए कूएँ से विस्तृत या विशाल स्थान का अनुमान नहीं कर सकता। इस न्याय का प्रयोग उस अनुभवहीन व्यक्ति के लिए किया जाता है जिसका पालन-पोषण संकुचित वातावरण में हुआ हो और जो सार्वजनिक जीवन तथा मानव जाति की गतिविधि से अनभिज्ञ हो। यथा-'अद्य खलु देशभक्तोऽपि कूपमंडूक एव मन्यते युगधर्मस्य 'वसुधैव कुटुम्बकम्' इति लक्षणात् ।' ३०. कूपयंत्रघटिकान्यायः-कूपयंत्रघटिकान्याय अर्थात् अरहट की घड़ियों ( लोटों) का न्याय । अरहर की माला के साथ बँधे हुए लोटों को दशा समान नहीं होती। जब कुछ लोटे नीचे पानी से भरते हैं, तभी ऊपर के लोटे रिक्त होते हैं। कुछ पूर्ण लोटे एक ओर से ऊपर को आते हैं तो कुछ रिक्त नीचे को जाते हैं । संसार में मनुष्यों के भाग्य की दशा भी इसी प्रकार भिन्न-भिन्न है। इसी अर्थ में इस न्याय का प्रयोग यों होता है-'कूपयन्त्रघटिका इव अन्योऽन्यमुपतिष्ठन्ते रायः।' ३१. क्षीरनीरन्यायः-इस न्याय का अर्थ हैं-दूध और पानी का दृष्टान्त । जब दूध और पानी परस्पर मिल जाते हैं तब यह जानना दुष्कर होता है कि उसमें दूध या पानी कितना और कहाँ है। इसी प्रकार जब दो या अधिक पदार्थों में घनिष्ठ सम्बन्ध बताना हो तब दूध-पानी की उपमा दी जाती है। यथा-'क्षीरनीरन्यायेन संगतानामेव मित्राणां मैत्री श्रेयस्करी भवति ।' ३२. गगनरोमन्थन्यायः-इस न्याय का अर्थ है, आकाश की जुगाली या पागुर करने का न्याय । यदि कोई पशु नीले आकाश को घास का मैदान मानकर मुँह हिलाता हुआ यह समझने लगे कि घास की जुगाली कर रहा हूँ तो उसका यह उद्योग नितान्त निष्फल होगा। इसी प्रकार के निरर्थक उद्योग के विषय में इस न्याय का प्रयोग होता है। जैसे–'लोकसेवां विना शाश्वतयशोऽभिलाषो ननु गगनरोमन्थ इव ।' ३३. गड्डरिकाप्रवाहन्याय:-इस न्याय का अर्थ है भेड़ियाधसान । यदि भेड़ों के झंड में से एक भेड़ नदी आदि में गिर जाए तो शेष भेड़ें भी रोके नहीं रुकती और नदी में कूद पड़ती हैं । इसी प्रकार जहाँ लोग समझाने पर भी सत्पथ का अनुसरण न करें और अन्धाधुन्ध किसी के पीछे चलते जाएँ, वहाँ यह न्याय प्रयुक्त होता है। जैसे-'न जातु गड्डरिकाप्रवाहं विचरन्ति केसरिणः । ३४. गुडजिबिकान्यायः-उक्त न्याय का अर्थ है, गुड़ को जिह्वा पर लगाने की कहावत । प्रायः बालक कड़वी दवाई प्रसन्नतापूर्वक नहीं पीते। जब उनके हित के लिए उन्हें वह पिलानी अनिवार्य होती है तब बुद्धिमान् मनुष्य पहले उनकी जिह्वा पर गुड़ का लेप कर देते हैं इससे औषध को कड़वाहट लुप्त या न्यून हो जाती है। इसी प्रकार जब किसी मनुष्य को किसी दुष्कर कार्य में प्रवृत्त करना होता है तब कोई प्रलोभन आदि दे दिया जाता है। ऐसे ही अवसर इस न्याय के For Private And Personal Use Only

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