Book Title: Adarsha Hindi Sanskrit kosha
Author(s): Ramsarup
Publisher: Chaukhamba Vidyabhavan

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Page 793
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir [ ७५५ ] से प्रभावित है और उसमें भाषा का माधुर्य और लालित्य प्रशंसनीय है। लेखक कमनीय कल्पनाएँ करने में कुशल है। सोमदेव सूरि-ये जैनकवि राष्ट्रकूटनरेश कृष्णराजदेव के समकालीन थे। ९५८ ई० में रचित इनके 'यशस्तिलकचम्पू' में अवन्ति-नरेश यशोधर की कथा का वर्णन है। रानी की सकपट चालों से राजा की विरक्ति, वध तथा पुनर्जन्म की घटनाओं का रोचक उल्लेख है । जैनधर्म के पालन के महत्व को सम्यक् व्यक्त किया गया है। इसमें अनेक अशात काव्यकारों और कृतियों का उल्लेख है, अतएव साहित्य के इतिहास के विचार से भी कृति महत्त्वपूर्ण है। हरिचन्द- जैनकवियों में हरिचन्द का नाम विशेष उल्लेख्य है। ये कायस्थ अद्रिदेव तथा रथ्यादेवी के तनुज थे। सम्भवतः इनका समय ग्यारहवीं शती है। इनके 'धर्मशाभ्युदय' नामक महाकाव्य में पन्द्रहवें तीर्थकर धर्मनाथजी का चरित्र वर्णित है। वैदर्भी रीति में उपनिबद्ध इस काव्य की भाषा अतिसुन्दर और अलंकृत है। जैनसाहित्य में २१ सर्गों के इस महाकाव्य का वही स्थान है जो नैषध और शिशुपालवध का ब्राह्मण-साहित्य में। हर्षवर्धन-ये थानेसर के महाराज प्रभाकरवर्द्धन के द्वितीय पुत्र थे और अग्रज राज्यवर्धन के पश्चात् सिंहासनासीन हुए थे। इन्होंने ६०६-६४८ तक शासन किया था। बाणभट्ट, मयूरभट्ट और दिवाकर इन्हीं के सभापंडित थे। इनके तीन रूपक मिलते हैं--रत्नावली, प्रियदर्शिका और नागानन्द । प्रथम दो संस्कृत की प्राचीनतम नाटिकाएँ हैं और वत्सराज उदयन की प्रणयकथाओं के आधार पर प्रणीत हैं । नागानन्द का आधार एक बौद्ध कथानक है जिसमें नागों को गरुड़ से बचाने के लिए जीमूतवाहन आत्मसमर्पण कर देता है। इस उच्चादर्श के कारण नागानन्द विद्वत्समाज में विशेष सम्मानित है। हेमचन्द्र-प्रसिद्ध जैनमुनि हेमचन्द्र का जन्म ढंदुक में १०८८ ई० में हुआ। इनके पिता का नाम छछिगश्रेणी और माता का पाहिनी था। इनकी माता ने इन्हें पाँच वर्ष के वय में ही देवेन्द्र सूरि को सौंप दिया और ये विद्याध्ययन में संलग्न हो गये। ये संस्कृत और प्राकृत वाङमय के विभिज्ञ विभागों में ऐसे निष्णात हो गये कि 'कलिकालसर्वज्ञ' कहाने लगे। इनके संस्कृत-प्राकृत ग्रन्थों की पक्तिसंख्या साढ़े तीन करोड़ है। ये गुजराज में राजा जयसिंह और कुमारपाल की सभा में रहे थे और इनकी प्रेरणा से जैनधर्म राज्यधर्म बन गया था। इन्होंने अनशन-समाधि से ११७३ ई० में प्राणत्याग किया। इनके 'कुमारपालचरित' में २८ सर्ग हैपहले २० संस्कृत में और अन्तिम ८ प्राकृत में। 'त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित' और 'स्थविरावलीचरित' में जैन सन्तों की जीवनियाँ हैं। कुछ अन्य कृतियाँ ये हैं--काव्यानुशासन, छन्दोऽनुशासन, देशीनाममाला, अभिधानचिन्तामणि, अनेकार्थसंग्रह, निघंटुशेष, शब्दानुशासन, योगशाला For Private And Personal Use Only

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