Book Title: Adarsha Hindi Sanskrit kosha
Author(s): Ramsarup
Publisher: Chaukhamba Vidyabhavan

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Page 791
________________ Shri Mahavir Jain Aradhana Kendra www.kobatirth.org Acharya Shri Kailassagarsuri Gyanmandir [ ७५३ ] अनुसन्धायकों का मत है कि पहले महाभारत का नाम 'जय' था और उसमें ८८०० श्लोक थे । पीछे इसके परिवर्द्धित रूप का नाम 'भारत' पड़ा और इलोकसंख्या २४००० हो गई । अन्त में जब सौतिने अनेक प्रसंग और बढ़ाए तब इसका नाम 'महाभारत' हो गया और श्लोकसंख्या एक लाख के लगभग तक जा पहुँची । अस्तु, महाभारत संसार का बृहत्तम काव्य माना जाता है परन्तु इसका वास्तविक महत्व बृहदाकारता के कारण न होकर एक विश्वकोश-सा होने के कारण है । स्वयं महाभारत में लिखा है कि यह सर्वप्रधान काव्य, समग्र दर्शन-सार, स्मृति, इतिहास, चरित्र चित्रण की खान तथा पंचम वेद है। यह भी कहा गया है कि धर्म चार्थे च कामे च मोक्षे च भरतर्षभ । यदिहास्ति तदन्यत्र यन्नेहास्ति न तत् क्वचित् ॥ भाव यह कि धर्म, अर्थ, काम और मोक्ष-विषयक जितनी जानकारी इसमें है उतनी अन्यत्र नहीं । शंकराचार्य - स्वामी शंकराचार्य ( ७८८-८२० ई०) दक्षिण के नाम्बूद्री ब्राह्मण थे। ये प्रकाण्ड पण्डित और दिग्गज दार्शनिक थे। इन्होंने अल्पावस्था में ही संन्यास लेकर ब्राह्मण धर्म के पुनरुत्थान में महनीय सहयोग दिया। आज इनकी विद्वत्ता की संसार मुक्तकण्ठ से प्रशंसा करता है । इनके नाम से बहुत से ग्रन्थ प्रचलित हैं परन्तु निम्नलिखित ग्रन्थों के शंकर-कृत होने में सन्देह नहीं किया जाता - ब्रह्मसूत्र भाष्य, गीता भाष्य, उपनिषदों के भाष्य, उपदेशसाहस्री, आत्मबोध, हस्तामलक । यद्यपि इनकी विश्वव्यापी कीर्ति के आधार इनके दार्शनिक ग्रन्थ ही हैं तथापि अनेक देवी-देवताओं के जो स्तोत्र इन्होंने लिखे हैं वे अत्यन्त सरस हैं और पाठकों को भक्तिरस में तन्मय करने में सर्वथा समर्थ है। इनकी कविता का परम माधुर्य 'आनन्दलहरी' में लिया जा सकता है जो भाव, भाषा, रस, अलंकार, साहित्य, तंत्र आदि सभी दृष्टियों से अपूर्व है । शक्तिभद्र - मालाबार जनश्रुति शक्तिभद्र को स्वामी शंकराचार्य ( ७८८-८२० ई० ) का शिष्य बताती है, अत: इन्हें नवीं शती के प्रारम्भ का कवि माना जा सकता है। इनका 'आश्चर्यचूडामणि' नाटक उत्तररामचरित के बाद सर्वोत्तम रामनाटक समझा जाता है। नाटक अद्भुत रस-प्रधान है और सरल, आडंबररहित भाषा में लिखा गया है । शिवस्वामी - काश्मीरी महाकवि शिवस्वामी आनन्दवर्धन तथा रत्नाकर के समकालीन थे और विख्यात काश्मीरनरेश अवन्तिवर्मा ( ८५५-८८४ ई० ) के शासनकाल में विद्यमान थे । शैव होते हुए भी इन्होंने बौद्धाचार्य चन्द्रभित्र को प्रेरणा से बौद्ध साहित्य में प्रसिद्ध कफ्फिण के आख्यान के आधार पर एक सुन्दर महाकाव्य 'कफ्फिण्याभ्युदयम्' की रचना की। इसमें दाक्षिणात्य नरेश कफ्फिण द्वारा श्रावस्ती-नरेश प्रसेनजित् की पराजय तथा अन्त में कफ्फिण के बुद्ध की शरण में जाने का उल्लेख है। शिवस्वामी ने अपने को 'यमककवि' कहा है और उनके काव्य में यमक, उपमा, उत्प्रेक्षा तथा इलेष की अद्भुत छटा द्रष्टव्य है । निस्सन्देह यह काव्य संस्कृत वाङ्मय का एक उज्ज्वल रत्न है । शूद्रक - महाराज विक्रमादित्य के समान ही महाराज शूद्रक के विषय में अनेक दन्तकथाएँ भारत में प्रचलित हैं । इनका उल्लेख कादम्बरी, कथासरित्सागर आदि अनेक ग्रन्थों में हुआ है । 'मृच्छकटिक' में इन्होंने अपना जो परिचय दिया है उससे ये शिवजी के कृपापात्र, अश्वमेधयाजी, युद्धकुशल, वेदज्ञ, हाथियों से बाहुयुद्ध करने के प्रेमी विदित होते हैं । शतायु हो जाने पर पुत्र को सिंहासनासीन कर इन्होंने अग्निप्रवेश द्वारा प्राणत्याग किया था । इन्होंने 'मृच्छकटिक' की रचना पाँचवीं शती में की थी। इस 'प्रकरण' के दस अंकों में उज्जयिनी की प्रख्यात वेश्या वसन्तसेना और उदारमना सेठ चारुदत्त के प्रेम का सुन्दर वर्णन જઃ For Private And Personal Use Only

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