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व्यक्ति आत्म सुख प्रदाता शील के आचरण को त्याग कर दुःशीलता की ओर आकर्षित होता है।
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" ज्ञानार्णव में भी कहा गया है कि जिस तरह विष्ठा खाने वाला सूअर अपने को सुखी मानता है, उसी तरह मूर्ख मनुष्य स्त्रियों के जघनविल के विष्ठा और मूत्र से भरे हुए चमड़े से सुख का अनुभव लेता है।
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4.2. संग गोंद आदि चिपचिपे पदार्थ को संग (लेप) कहते हैं जो कीट-पतंगे आदि इसकी सुगंध, स्वादादि से आकर्षित होकर इस पर मंडराते हैं, वे इसमें चिपक जाते हैं। एक बार इसमें फंस जाने के बाद जैसे-जैसे इससे निकलने का प्रयास करते हैं वैसे-वैसे और अधिक फंसते जाते हैं और अंतत: अपने प्राण खो देते हैं। उत्तराध्ययन सूत्र में स्त्रियों को संग (लेप) से उपमित किया गया है। जो पुरुष स्त्रियों में आसक्ति रखता है वह संग में कीट की तरह फंस जाता है।
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4.3.
दलदल - कमल के फूल दलदल में उत्पन्न होते हैं। फूल के लोभ में मनुष्य या हाथी दलदल में प्रवेश कर जाते हैं, पानी में हलचल से फूल गहरे पानी और दलदल की ओर सरक जाता है। प्रविष्ट व्यक्ति और अधिक गहरे में जाता है और फंस जाता है। फिर न तो उसे फूल ही मिलता है और न वह वापस तट पर आ सकता है। उत्तराध्ययन सूत्र में स्त्रियों और कामगुण को दलदल के समान बताया गया है। इनकी आसक्ति में फंसा व्यक्ति न तो भौतिक सुख पा सकता है और न आध्यात्मिक लाभ ही
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धर्मामृत अणगार में स्त्री को ऐसे कीचड़ की उपमा दी गई है जिसमें कीड़े बिलबिलाते हैं। जैसे कीचड़ में फंसकर निकलना कठिन होता है वैसे ही स्त्री के राग में फंसकर उससे निकलना कठिन होता है। ज्ञानार्णव में भी नारी देह को कीचड़ कहा गया है।
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4.4.
बंधन - जिस प्रकार विभिन्न पशु-पक्षियों के लिए विभिन्न प्रकार के उपकरण बंधन होते हैं। उत्तराध्ययन सूत्र में स्त्री को उसी प्रकार मनुष्य के लिए बंधन कहा गया है। वह एक प्रकार का बंधन है यह बताने के लिए टीकाकार ने दो प्राचीन श्लोक उद्धृत किए हैंवारी गयाणं जालं तिमिण हरिणाण वग्गुरा चेव । पासा य सउणयाणं, णराण बंधत्थ मित्थीओ।।
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अर्थात् हाथी के लिए वारि श्रृंखला, मछलियों के लिए जाल, हरिणों के लिए वाग्गुरा और पक्षियों के लिए पाश जैसे बंधन हैं, उसी प्रकार मनुष्यों के लिए स्त्रियां बंधन हैं।
उन्नयमाणा अक्खलिय-परक्कमा पंडिया कई जे य ।
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महिलाहि अंगुलीए, नच्चा विज्जति ते वे नरा ||
अर्थात् उन्नत और अस्खलित पराक्रम वाले पण्डित और कवि भी महिलाओं की अंगुलियों के संकेत पर नाचते हैं।
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