Book Title: Jain Vangmay me Bramhacharya
Author(s): Vinodkumar Muni
Publisher: Vinodkumar Muni

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Page 197
________________ (2) पृच्छना - अज्ञात विषय की जानकारी या ज्ञात विषयों की विशेष जानकारी के लिए प्रश्न करना। (3) परिवर्तना - परिचित विषय को स्थिर रखने के लिए उसे बार बार दोहराना। (4) अनुप्रेक्षा - परिचित और स्थिर विषय पर चिंतन करना, पर्यालोचन करना। (5) धर्म कथा - स्थिरी कृत और पर्यालोचित विषय का उपदेश करना। 101 ब्रह्मचर्य विकास के लिए अनुप्रेक्षा का अपना विशेष महत्त्व है। कामेच्छा का कारण है मूर्छा। चेतना पर छाए हुए मूर्छा के आवरण को तोड़ने का सशक्त माध्यम है - अनुप्रेक्षा। अनुप्रेक्षा को भावना के नाम से भी जाना जाता है। दसवैकालिक सूत्र में स्वाध्याय के लिए आत्म चिन्तन के स्वरूप को मनोवैज्ञानिक एवं प्रभावशाली प्रश्नावली के रूप में प्रस्तुत किया गया है। आत्म साधना स्वयं की साक्षी से ही होती है। ऊपर का मार्गदर्शन और अनुशासन आत्मानुशासन होने पर ही सफलीभूत होता है। इसलिए स्वयं के कर्तव्याकर्तव्य का लेखा जोखा स्वयं करना आवश्यक होता है। स्वयं की साधना को जांचने के लिए प्रस्तुत प्रश्नावली के उत्तर सुबह-सायं नियमित रूप से स्वयं ही खोजने से अच्छा खासा आत्म प्रतिलेखन हो जाता है। वह प्रश्नावली इस प्रकार हैं - 1. मैंने क्या किया ? 2. अब मेरे लिए क्या कार्य करना शेष है ? 3. वह कौन सा कार्य है जिसे मैं कर सकता हूं पर प्रमादवश नहीं कर रहा हूं? 4. क्या मेरे प्रमाद को कोई दूसरा देखता है अथवा अपनी भूल को मैं स्वयं देख लेता हूं? 5. वह कौन सी स्खलना है जिसे मैं नहीं छोड़ रहा है? इन प्रश्नों के उत्तर के अनुसंधान से साधक स्वयं की स्खलनाओं से परिचित होता है जिससे उसके परिष्कार की प्रक्रिया सरल हो जाती है। 102 भगवती आराधना के अनुसार - अन्य लोग मेरे संबंध में क्या कहते हैं ? मुझे किस दृष्टि से देखते हैं ? मेरी प्रवृत्ति कैसी है ? ऐसा जो सदा विचार करता है उसका ब्रह्मचर्य व्रत दृढ़ होता है। 103 आचार्य तुलसी ने भावना को चित्त की शुद्धि, मोह क्षय तथा ब्रह्मचर्य आदि की वृत्ति को स्थिर करने का विशिष्ट प्रयोग बताया है। 104 180

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