Book Title: Jain Vangmay me Bramhacharya
Author(s): Vinodkumar Muni
Publisher: Vinodkumar Muni

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Page 201
________________ 3.11.0 ध्यान ध्यान आभ्यन्तर तपस्या का पांचवा अंग है। ध्यान का अर्थ है किसी एक आलम्बन पर मन को स्थापित करना अथवा मन, वचन और काया की प्रवृत्तियों का निरोध करना। जैन परम्परा में ब्रह्मचर्य विकास में ध्यान का महत्त्वपूर्ण स्थान है। भगवान महावीर ध्यान के अनेक प्रयोग किया करते थे। आचारांग सूत्र के अनुसार आत्मा की गहराई में पैठकर ध्यान में लीन रहने से वे स्त्री परीषह को जीत लेते थे। जैन आगमों में ब्रह्मचर्य विकास के लिए ध्यान के अनेक सूत्र पाए जाते हैं। आचार्य महाप्रज्ञ ने प्राचीन आगमों एवं योग शास्त्रों तथा आधुनिक विज्ञान का गहन अध्ययन कर स्वयं के जीवन को प्रयोगशाला बनाया। विलुप्त प्रायः हुई ध्यान पद्धति को प्रेक्षाध्यान के नाम से सरल एवं सहज रूप से प्रस्तुत किया है। प्रेक्षाध्यान के कुछ प्रयोग ब्रह्मचर्य विकास के लिए बहुत ही प्रभावकारी सिद्ध हुए हैं। 3.11.1 शरीर प्रेक्षा - अब्रह्मचर्य का प्रमुख कारण है शरीर के प्रति आसक्ति। आसक्ति तभी तक रहती है जब तक शरीर के प्रति मिथ्या धारणा रहती है। आचारांग सूत्र में शरीर की मूर्छा तोड़ने के लिए शरीर के आन्तरिक अंगों को देखने का सूत्र है। सूत्रकार के शब्दों में 'जहा अंतो तहा बाहि, जहा बाहि तहा अंतो।' अर्थात् यह शरीर जैसा भीतर है, वैसा बाहर है। जैसा बाहर है वैसा भीतर है। 129 शरीर का बाह्य सौन्दर्य आकर्षण का कारण बन सकता है। किन्तु शरीर का आन्तरिक हिस्सा रक्त, मांस आदि वीभत्स पदार्थों का बना है। शरीर प्रेक्षा से शरीर की यथार्थ स्थिति का ज्ञान होता है। इससे शरीर के प्रति आसक्ति टूटती है। 3.11.2 आनन्द केन्द्र प्रेक्षा - मनुष्य के शरीर में विभिन्न अंग विशेष पर चेतना की सघनता पाई जाती है। जैन परम्परा में इन अंगों को चैतन्य केन्द्र के नाम से जाना जाता है। आचारांग सूत्र के भाष्यकार आचार्य महाप्रज्ञ की मान्यतानुसार काम संज्ञा शक्ति केन्द्र को, आहार संज्ञा स्वास्थ्य केन्द्र को और यश की अभिलाषा तैजस केन्द्र को सक्रिय करती है। इस स्थिति में आनन्द केन्द्र निष्क्रिय हो जाता है। इसलिए साधक में आत्महित की प्रज्ञा नहीं जागती और न निर्जरार्थिता का भाव ही वृद्धिंगत होता है। इसलिए ब्रह्मचर्य, आहार संयम और यशोभिलाषा से मुक्ति - इन भावों की वृद्धि के लिए "आनन्द केन्द्र प्रेक्षा" का उपाय बताया गया है। आनन्द केन्द्र की सक्रियता होने पर ये तीनों संज्ञाएं विनष्ट हो जाती हैं। 130 ___ योगशास्त्र' तथा ज्ञानार्णव' के अनुसार श्वास ग्रहण कर चित्त को आनन्द केन्द्र (हृदय कमल) पर केन्द्रित करने से कुवासनाएं, मानसिक विकल्प - राग द्वेष स्वरूप विचार, विषय तृष्णा उत्पन्न नहीं होती। अन्तःकरण के भीतर विशिष्ट ज्ञान प्रकाशमान होता है। 184

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