Book Title: Jain Vangmay me Bramhacharya
Author(s): Vinodkumar Muni
Publisher: Vinodkumar Muni

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Page 202
________________ आचार्य महाप्रज्ञ ने आनन्द केन्द्र के वैज्ञानिक पक्ष को स्पष्ट किया है। उनके अनुसार फुफ्फुस के नीचे हृदय का पार्श्ववर्ती स्थान आनन्द केन्द्र है। यह थाइमस ग्रन्थि का प्रभाव क्षेत्र है। वयस्कावस्था तक यह ग्रन्थि शिशु के विकास में महत्त्वपूर्ण भूमिका निभाती है। काम ग्रन्थियों - वृषण और डिम्बाशय की क्रियाओं का निरोध करती हैं। वयस्कावस्था के बाद इसकी क्रिया मन्द हो जाती है। 133 इस केन्द्र पर ध्यान कर थाइमस ग्रंथी की सक्रियता बढ़ा कर काम ग्रन्थियों को नियंत्रित कर ब्रह्मचर्य का विकास किया जा सकता है। 3.11.3 विशुद्धि केन्द्र प्रेक्षा - इसका स्थान कंठकूप है। यह थाइराइड और पैराथाइराइड ग्रन्थी का प्रभाव क्षेत्र है। इस केन्द्र पर ध्यान करने से हमारी वृत्तियां सहज रूप से शान्त होती हैं। वासनाओं के उदातीकरण यानि निर्मलीकरण के लिए यह एक विशेष प्रयोग है। 154 3.11.4 ब्रह्म केन्द्र - जिह्वाग्र का स्थान ब्रह्म केन्द्र है। इस पर ध्यान करने से ब्रह्मचर्य की साधना पुष्ट होती है। आचार्य महाप्रज्ञ के अनुसार यह एक सूक्ष्म नियम है कि हमारी पांचों ज्ञानेन्द्रियों का पांच कर्मेन्द्रियों के साथ निकट का संबंध हैं। तंत्र शास्त्र में पांच तत्त्वों की मीमांसा हैं - पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु और आकाश। इन पांच तत्त्वों की क्रमशः पांच ज्ञानेन्द्रियां हैं - घ्राण, जिह्वा, चक्षु, स्पर्शन और श्रोत तथा पांच कर्मेन्द्रियां हैं - अपान, जननेन्द्रिय, पैर, हाथ और वाक्। इस प्रकार जीभ का और जननेन्द्रिय का गहरा संबंध हैं। ये दोनों जल तत्त्व से संबंधित हैं। जब इनको रस अधिक मिलेगा तो कामुकता बढ़ेगी। रस का संयम और जिह्वाग्र की प्रेक्षा, दोनों ब्रह्मचर्य के साधन हैं। जिह्वाग्र की प्रेक्षा करते समय जीभ को अधर में रखा जाता है, तब उसके अग्र भाग पर विशेष प्रकार के स्पन्दनों का अनुभव होता है। जीभ पर संयम करना, जीभ को स्थिर रखना, जीभ को शिथिल करना, मौन करना, उसकी प्रेक्षा करना, ये सब ब्रह्मचर्य के विकास में सहायक होते हैं। 135 3.11.5 ज्योति केन्द्र और दर्शन केन्द्र - ज्योति केन्द्र का स्थान ललाट के मध्य भाग में है तथा दर्शन केन्द्र दोनों भृकुटियों के बीच स्थित है। योग ग्रन्थों में इसे आज्ञा चक्र के नाम से भी जाना जाता है। इन पर ध्यान करने से ये केन्द्र जागृत हो जाते हैं। जब ये जागृत होते हैं तब पीनियल और पिट्यूटरी ग्रन्थियों की सक्रियता बढ़ जाती है। पीनियल की सक्रियता से गोनाड्स पर और पिट्यूटरी की सक्रियता से एड्रीनल पर नियंत्रण स्थापित हो जाता है। एड्रीनल और गोनाड्स के कारण ही काम वासना, उत्तेजना, आवेग आदि जागृत होते हैं। पीनियल और पिट्यूटरी के द्वारा जब इन ग्रन्थियों को नियंत्रित कर लिया जाता है तो काम वृत्तियां अनुशासित हो जाती हैं। इससे अपूर्व आन्तरिक आनन्द की वृत्ति जागृत हो जाती है। इन दोनों केन्द्रों के संदर्भ में आचार्य महाप्रज्ञ यह मानते हैं कि जो साधक ब्रह्मचर्य का पालन करना चाहता है, उसे इन दोनों पर ध्यान करना अत्यावश्यक है। इसके अभाव में वह 185

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