Book Title: Jain Vangmay me Bramhacharya
Author(s): Vinodkumar Muni
Publisher: Vinodkumar Muni

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Page 195
________________ 84 चाहिए, जैसे जातिमान घोड़ा लगाम को खींचते ही सम्भल जाता है। उत्तराध्ययन सूत्र में राजीमती व रथनेमि के प्रसंग में भी यही कहा गया है कि प्रमादवश विचलित हो जाने पर भी राजीमती के उपदेश देने पर रथनेमि पुनः सम्भल जाते हैं। 85 निशीथ, व्यवहार, बृहत्कल्प, दशाश्रुतस्कंध आदि प्रायश्चित्त सूत्र में विभिन्न स्खलनाओं के परिष्कार के लिए विस्तृत विधान बताया गया है। 3.8 विनय जैन परम्परा में विनय का स्थान अति महत्त्वपूर्ण है। इसके महत्त्व को प्रकाशित करते हुए आवश्यक निर्युक्ति में कहा गया है विणओ सासणे मूलं विणीओ संजओ भवे " विणयाउ विप्यमुक्कस्स कओ धम्मो कओ तवो। , अर्थात् विनय शासन का मूल है। विनीत संयत होता है। जो विनय से शून्य है, उसके कहां धर्म और कहां तप ?" ब्रह्मचर्य अभ्यास का अंग है इसलिए ब्रह्मचर्य विकास के लिए विनय की साधना का अपना महत्त्व है। शिष्य के विनय से गुरु प्रसन्न होकर, सैद्धान्तिक और प्रायोगिक विपुल ज्ञान प्रदान करते हैं। प्रश्नव्याकरण सूत्र में ब्रह्मचर्य की स्थिरता के लिए विनय के द्वारा अन्तःकरण को भावित करना बताया गया है। 87 विनय का अर्थ - आवश्यक निर्युक्ति एवं उत्तराध्ययन शान्त्याचार्य वृत्ति के अनुसार जो आठ प्रकार के कर्मों का विनयन- अपनयन करता है, वह विनय है। 88 विनय के सात प्रकार दसवैकालिक अगस्त्यसिंह चूर्णि में विनय के सात प्रकारों - का निरूपण किया गया है ज्ञान विनय दर्शन विनय, चारित्र विनय, मन विनय, वचन विनय, काय विनय और औपचारिक विनय 89 3.9. वैयावृत् उत्तराध्ययन के वृत्तिकार शान्त्याचार्य ने धर्म साधना में सहयोग करने के लिए संयमी को शुद्ध आहार, औषध आदि लाकर देना तथा उसके अन्य कार्यों में व्यावृत होने को वैयावृत्य कहा है। 90 जैन परम्परा में वैयावृत्य का महत्त्वपूर्ण स्थान है। कहा जाता है कि चारित्र और ज्ञान प्रतिपाती हैं - प्रमाद या कर्मोदय के कारण अथवा मृत्यु के पश्चात् चारित्र नष्ट हो जाता है, पढा हुआ, सीखा हुआ ज्ञान परिवर्तना के अभाव में विस्मृत हो जाता है किन्तु वैयावृत्य अप्रतिपाती है - इससे अर्जित शुभ रूप में उदय में आने वाला कर्मफल नष्ट नहीं होता है। ब्रह्मचर्य के विकास में वैयावृत्य का अपना विशेष स्थान है। निशीथ सूत्र के अनुसार 178

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