Book Title: Jain Vangmay me Bramhacharya
Author(s): Vinodkumar Muni
Publisher: Vinodkumar Muni

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Page 194
________________ निरोध तथा उदय प्राप्त कषाय को विफल करना। 3.6.3 योग प्रतिसंलीनता - योग अर्थात् मन-वचन-काय की प्रवृत्ति। अकुशल मन-वचन काया का निरोध एवं कुशल योगों में प्रवृत्ति योग प्रतिसंलीनता है। 3.6.4 विविक्तशयनासन - उत्तराध्ययन सूत्र में एकान्त, अनापात और स्त्री-पशु आदि से रहित शयन और आसन का सेवन करने को विविक्तशयनासन कहा गया है।" आन्तरिक अनुभूति एवं गहराई में जाने के लिए एकान्त वास बहुत मूल्यवान होता है। इसमें बाह्य संसार से चित्त को हटाकर अन्तर्मुखी बनने का सुन्दर अवसर मिल जाता है। ब्रह्मचर्य के विकास के लिए यह एक सक्षम माध्यम है। 3.7. प्रायश्चित्त साधना काल में परिस्थिति जन्य अनेक उतार-चढ़ाव आते हैं। कर्मोदय वश मैथुन सेवन आदि कोई स्खलना हो सकती है। जैन आगमों में इन स्खलनाओं के परिष्कार का मार्ग प्रायश्चित्त बताया गया है। आचारांग सूत्र में इस प्रकार की भूल को ऋजुतापूर्वक स्वीकार करने का निर्देश है। उसे अस्वीकार करने से या छिपाने से दोष का परिमार्जन नहीं हो पाता और काम सेवन के संस्कार अन्दर ही अन्दर प्रगाढ़ होते चले जाते हैं। यहाँ दोष को छुपाने की प्रवृत्ति को अज्ञानी पुरुष की दोहरी मूर्खता बताई गई है। सूत्रकृतांग सूत्र में इसका उल्लेख बड़े मनोवैज्ञानिक तरीके से किया गया है। अब्रह्मचर्य सेवन करके भी जो प्रायश्चित्त नहीं करता बल्कि मान-सम्मान की कामना से पाप का अवर्णवाद भी करने लगता है, सूत्रकार इसे दोगुना पाप मानते हुए कहते हैं कि वह भले ही कितनी ही चतुराई करे ज्ञानी व्यक्ति से छुपा नहीं सकता।" प्रायश्चित्त का महत्त्व प्रतिपादित करते हुए सूत्रकृतांग सूत्र के चूर्णिकार कहते हैं कि स्खलना भले ही छोटी सी हो, उसका प्रायश्चित अविलम्ब कर लेना चाहिए। दृष्टांत देते हुए वे कहते हैं - एक व्यक्ति सफेद कपड़े पहने हुए था। उस पर कुछ कीचड़ लग गया। व्यक्ति ने सोचा इस छोटे से धब्बे से क्या अन्तर आएगा। उसने उसकी उपेक्षा कर दी। उसे उसी समय धो कर साफ नहीं किया। फिर कभी उसी वस्त्र पर स्याही, श्लेष्म, चिकनाई आदि लगती गई। उसने उसकी भी उपेक्षा कर दी। धीरे-धीरे वस्त्र अत्यन्त मलिन हो गया। 2 इस प्रकार जो साधक चरित्र पटल पर लगने वाले छोटे से धब्बे की भी उपेक्षा नहीं करता, प्रायश्चित्त कर लेता है उसका ब्रह्मचर्य निर्मल, सुदृढ़ एवं स्थिर रहता है। दसवैकालिक सूत्र में जान या अनजान में कोई अधर्म कार्य हो जाने पर अपनी आत्मा को उससे तुरन्त हटा लेने की बात कही गई है। इसी ग्रंथ में उदाहरण देते हुए सूत्रकार कहते हैं कि जहां कहीं भी मन, वचन और काया को दुष्प्रवृत्त होता देखें तो तुरन्त सम्भल जाना 177

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