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अनुसार मनुष्य जो कार्य (काम सेवन) करता है, उसकी वृत्ति अर्थात् संस्कार मन में अंकित हो जाते हैं। वे संस्कार बार-बार प्रकट होते हैं और काम पूर्ति के साथ-साथ प्रगाढ होते जाते हैं। इस प्रकार काम के आसेवन से मनुष्य काम के अंतहीन चक्र में फंस जाता है।
सूत्रकृतांग सूत्र में इसी तथ्य को आगे बढ़ाते हुए कहा गया है कि संस्कारों के प्रगाढ़ हो जाने पर उनसे मुक्त होना बहुत ही कठिन होता है। सूत्र में उदाहरण के साथ कहा गया है कि जैसे गाड़ीवान द्वारा प्रताड़ित और प्रेरित बैल अंत में अल्प प्राण हो जाता है तथा वह दुर्बल होकर गाड़ी को विषम मार्ग में नहीं खींच पाता, कीचड़ में फंस जाता है। इसी प्रकार काम के संत्रास से पीड़ित होकर कामुक व्यक्ति सोचता है कि मुझे आज या कल यह संस्तव (काम-भोग) छोड़ देना चाहिए। वह उस काम भोग को छोड़ना चाहते हुए भी कुटुंब पोषण आदि के दुःखों से प्रताड़ित
और प्रेरित होकर उन्हें छोड़ नहीं पाता। प्रत्युत उस बैल की भांति अल्प प्राण होकर उनमें निमग्न हो जाता है। मनुष्य कामी होकर कहीं भी प्राप्त या अप्राप्त कामों की कामना न करें। 139 2.4(6) विघ्न बहुलता - आचारांग सूत्र में काम को विघ्न-बहुल बताते हुए कहा गया है कि काम का संसार विघ्न बाधाओं से भरा हुआ होता है। काम और विघ्न दोनों साथ-साथ चलते हैं। मनुष्य सुख की इच्छा से काम का सेवन करना चाहता है पर काम के सेवन काल में अपहरण, रोग, मृत्यु आदि अनेक विघ्न बाधाएं उपस्थित हो जाती हैं। मनुष्य इष्ट विषय चाहता है, पर प्रत्येक इष्ट विषय के साथ अनिष्ट विषय अनचाहा आ जाता है। काम अपूर्ण है इसलिए वे मनुष्य की इच्छा को तृप्त करने में सक्षम नहीं होते। फलत: उनका पार पाना संभव नहीं है। " 2.4(7) महान अनर्थ - आचारांग सूत्र के अनुसार विषयों की आसक्ति से मनुष्य मूढ़ बन जाता है। वह हित-अहित का चिंतन किए बिना ही कार्य करता है। फलत: वह अनेक प्रकार के महान अनर्थों को जन्म देता है। 17
दसवैकालिक सूत्र में भी अब्रह्मचर्य को अधर्म का मूल और महान दोषों की राशि बताते हुए मैथुन वर्जन करने का उपदेश दिया गया है। 138
उत्तराध्ययन सूत्र के अनुसार काम भोग की आसक्ति से व्यक्ति क्रोध, मान, माया, लोभ, पुरुष वेद, नपुंसक वेद तथा हर्ष, विषाद आदि अनेक प्रकार के विकारों का केंद्र बन जाता है। इनके दुष्परिणामों के कारण वह करुणास्पद, दीन, लज्जित और अप्रिय बन जाता है। इस प्रकार काम भोग व्यक्ति को इस प्रकार घेरता है कि उसकी संसार-मुक्ति दुर्लभ हो जाती है। कहा गया है कि काम-भोग अनर्थों की खान है। 10 2.4(8) संबंधों की उपेक्षा - ज्ञानार्णव के अनुसार काम से पीड़ित मनुष्य पुत्रवधू, सास, पुत्री, उपमाता, गुरु की पत्नी, तपस्विनी और यहां तक कि तिर्यंचनी को भी भोगने की इच्छा करता है। 14 भगवती आराधना में कहा गया है कि मैथुन संज्ञा से मनुष्य मूढ़ बन जाता है। इससे वह
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