Book Title: Jain Vangmay me Bramhacharya
Author(s): Vinodkumar Muni
Publisher: Vinodkumar Muni

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Page 185
________________ से जीता जाता है। 2.1.1. ज्ञान के आयाम : जैन साहित्य में ज्ञान के अनेक आयामों की चर्चा की गई है(1) लोक का ज्ञान - आचारांग सूत्र के भाष्यकार आचार्य महाप्रज्ञ के अनुसार ब्रह्मचर्य की दिशा में पराक्रम के लिए विषय-लोक का ज्ञान तथा लोक संज्ञा का परित्याग अपेक्षित है। लोक संज्ञा का अर्थ है- लोक प्रवाह सम्मत विषयों की ओर दौड़ने की मनोवृत्ति। (2) क्षेत्र का ज्ञान - आचारांग सूत्र में साधना के विकास की अर्हता के रूप में क्षेत्रज्ञता को माना गया है। सूत्रकार कहते हैं 'जो क्षेत्रज्ञ होता है वह कामनाओं के प्रति अप्रमत्त, असंयत प्रवृत्तियों से उपरत, वीर और आत्मगुप्त यानि अपने आप में सुरक्षित होता है।' भाष्यकार ने क्षेत्र शब्द के पांच अर्थ किए हैं - शरीर, काम, इन्द्रिय विषय, हिंसा और मन-वचन काया की प्रवृत्ति। जो पुरुष इन सबको जानता है वह क्षेत्रज्ञ होता है। (3) परिणामों का ज्ञान - आचारांग सूत्र में काम के विपाक-फल के ज्ञान को कामविजय की साधना का आवश्यक अंग बताया गया है। काम का सेवन क्षण भर के लिए थोड़ा सा सुख देता है पर उसका विपाक लम्बे समय तक अति दुःखदायी होता है। काम के परिणाम के ज्ञान से काम के प्रति आकर्षण समाप्त हो जाता है।" दसवैकालिक सूत्र में काम-भोगों को किंपाक फल से उपमित करते हुए इनके परिणामों को जानना आवश्यक बताया गया हैं। 2.1.2. ज्ञान के साधन - ब्रह्मचर्य साधना कठिन एवं दुसाध्य है तथा इस विषय में सही मार्ग दर्शन भी मिलना कठिन होता है। जैन आगमों में ब्रह्मचर्य विषयक ज्ञान के विविध साधनों की चर्चा भी की गई है - (1) गुरुकुलवास - आचारांग सूत्र के अनुसार ब्रह्मचर्य विषयक ज्ञान एवं आचार दोनों ही के लिए गुरुकुलवास आवश्यक है। नए साधकों को अनुभवात्मक ज्ञान अल्प होता है। साधना मार्ग में आने वाले रति-अरति आदि विघ्न का सामना करने में वे असक्षम होते हैं। गुरु के मार्ग दर्शन, प्रेरणा और प्रोत्साहन से साधना विकसित होती रहती है। गुरुकुलवास के लिए गुरुआज्ञा का पालन आवश्यक होता है।" सूत्रकृतांग सूत्र में बुद्धों (ज्ञानियों) के सान्निध्य में आचार की शिक्षा प्राप्त करने का निर्देश मिलता है। ज्ञानियों के सान्निध्य से तात्पर्य गुरुकुलवास है। (2) सुनना - आचारांग सूत्र में काम और कलह से मुक्त होने के लिए ज्ञान का साधन तत्त्व सुनना माना गया है। " ठाणं सूत्र में सम्पूर्ण ब्रह्मचर्यवास के दो हेतु माने गए हैं - सुनना और जानना। प्राचीन समय में पुस्तकों के आविष्कार से पूर्व ज्ञानार्जन का माध्यम सुनना ही था। 168

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