Book Title: Yuvayogi Jambukumar Diwakar Chitrakatha 015
Author(s): Rajendramuni, Shreechand Surana
Publisher: Diwakar Prakashan

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Page 2
________________ युवायोगी जम्बूकुमार जैसा कि पानी स्वभाव से ढलान में बहता है। मनुष्य का मन भी स्वाभाविक रूप में सुख-सुविधाओं की ओर दौड़ता रहता है। अनेक प्रकार के कष्ट, बाधाएँ व अपमान सहकर भी इन सुखों को पाना चाहता है। किन्तु संसार में कुछ विरले मनुष्य ऐसे भी होते हैं, जिनके मन से मोह के संस्कार मिट जाते हैं, अज्ञान का पर्दा हट जाता है, वे इस प्रकार के भौतिक सुख प्राप्त होने पर भी इन्हें दुःखदायी समझते हैं । भगवान महावीर निर्वाण के लगभग १६ वर्ष पहले एक ऐसे ही अद्भुत वैरागी पुरुष ने जन्म लिया, जिसने १६ वर्ष की भरी-पूरी जवानी में सुख-सुविधाओं के अपार साधन, विपुल धन-सम्पत्ति, माता-पिता का प्यार और आठ सुन्दर नव विवाहित रमणियों के साथ विवाह हो जाने पर भी उसी रात में संसार के सब भौतिक सुख-सुविधाओं को त्यागकर, संयम के अत्यन्त कठिन कष्टप्रद मार्ग का अनुसरण किया। शरीर पर संयम करने से भी कठिन है, मन पर संयम करना। जिस मनस्वी युवक ने मन पर संयम करने की साधना का मार्ग अपनाया उसका इतिहास प्रसिद्ध नाम है जम्बूकुमार । युवायोगी जम्बूकुमार का दृढ़ संकल्प, त्याग और वैराग्य जैन इतिहास में तो प्रसिद्ध आदर्श त्याग है ही, परन्तु शायद संसार के धार्मिक साहित्य में भी ऐसी वैराग्यपूर्ण प्रेरक जीवन गाथा दूसरी मिलना कठिन है। जम्बूकुमार को वैराग्य किसी के उपदेश से नहीं, किन्तु अन्तःकरण की जागृति से पैदा हुआ था। इसलिए उसमें इतनी तेजस्विता, प्रेरकता और हृदय स्पर्शिता थी, कि उनकी वाणी का प्रभाव अमोघ हो गया। नव-विवाहिता पत्नियाँ भी उनके वैराग्य से प्रभावित होकर उनकी अनुगामिनी बन गईं। प्रभव जैसा नामी तस्कर भी जब उनकी वैराग्य भरी वाणी सुनता है तो उसका हृदय बदल जाता है, वह भी अपने ५०० साथियों के साथ जम्बूकुमार साथ ही संसार त्यागकर संयम का मार्ग स्वीकारता है। ऐसी अद्भुत ऐतिहासिक घटना वि. सं. ४७० वर्ष पूर्व वीर निर्वाण प्रथम वर्ष) में घटी, वह दिन इतिहास का चिरस्मरणीय दिन माना जाता है। जम्बूकुमार और उनकी पत्नियों के बीच हुआ वार्तालाप, संवाद बहुत रोचक और प्रेरक है । कथोपकथन में आई लघुकथाएँ भी बड़ी बोधप्रद है। यहाँ पर तो संक्षेप में १-२ कथाएँ ली गई हैं। बाकी किसी अन्य भाग में देने का प्रयास किया जायेगा । युवायोगी जम्बूकुमार का है जी के विद्वान शिष्य डॉ. राजेन्द्र मुनि शास्त्री ने प्रस्तुत किया है। इस सहयोग के लिए -महोपाध्याय विनय सागर - श्रीचन्द सुराना 'सरस' लेखक : ड सम्पादक : श्रीचन्द सुराना 'सरस' प्रकाशन प्रबंधक : संजय सुराना प्रकाशक Jain Education International श्री दिवाकर प्रकाशन -7, अवागढ़ हाउस, अंजना सिनेमा के सामने, एम. जी. रोड, आगरा-282002. दूरभाष : 0562-351165 सचिव, प्राकृत भारती अकादमी, जयपुर 13- ए, मेन मालवीय नगर, जयपुर-302017. दूरभाष : 524828, 561876,524827 अध्यक्ष, श्री नाकोड़ा पार्श्वनाथ तीर्थ, मेवानगर (राज.) श्री श्वेताम्बर स्थानकवासी जैन सभा 18/D, सुकेस लेन, कलकत्ता - 700001. दूरभाष : 2426369, 2424958 फैक्स: 2104139 चित्रांकन : श्यामल मित्र For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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