________________
ललित कलाएं और शिल्प-विज्ञान
२२५ घन, सुषिर, तत और अवनद, ये चार प्रकार के वाद्य है।' जो वाद्य ठोकर लगा कर बजाये जाते हैं, वे घन कहलाते हैं। जैसे घंटा आदि । जो वाद्य वायु के दबाव से बजाये जाते हैं, वे सुषिर कहलाते हैं। जैसे वेणु आदि । जो वाद्य तन्तु, तार या तांत लगाकर बनाये जाते हैं, वे तत कहलाते हैं । जैसे वीणा आदि। और जो वाद्य चमड़े से मढ़े होते हैं, वे अवनद्ध कहलाते हैं । जैसे मृदंग आदि । यशस्तिलक में विभिन्न प्रसंगों में तेईस प्रकार के वादित्रों के उल्लेख हैं : १. शंख, २. काहला, ३. दुंदुभि, ४. पुष्कर, ५. ढकका, ६. आनक, ७. भम्भा, ८. ताल, ९. करटा, १०. त्रिविला, ११. डमरुक, १२. रुंजा, १३. घंटा, १४. वेणु, १५. वीणा, १६. झल्लरी, १७. वल्लकी, १८. पणव, १९. मृदंग, २०. भेरी, २१. तूर, २२. पटह, २३. डिण्डिम ।
इनमें से प्रथम सोलह का उल्लेख युद्ध के प्रसंग में एक साथ भी हुआ है। इनके विषय में विशेष जानकारी निम्नप्रकार है : १. शंख
यशस्तिलक में शंख का उल्लेख कई बार हुआ है। युद्ध के प्रसंग में सोमदेव ने लिखा है कि शंख बजे तो दशों दिशाएँ मुखरित हो उठों। एक प्रसंग में सन्ध्याकाल में मृदंग और आनक के साथ शंख के कोलाहल की चर्चा है। एक स्थान पर पूजा के अवसर पर अन्य वाद्यों के साथ शंख का भी उल्लेख है (पृष्ठ ३८४ उत्त० )।
शंख की सर्वश्रेष्ठ जाति पाञ्चजन्य मानी जाती है । भगवद्गीता के अनुसार श्रीकृष्ण के हाथ में पाञ्चजन्य शंख रहता था। सोमदेव ने इन दोनों तथ्यों का उल्लेख किया है।
संगीतशास्त्र में शंख की गणना सुषिर वाद्यों में की जाती है। यह शंख नामक जलकोट का आवरण है और जलस्थानों - विशेषकर समुद्रों में उपलब्ध
५. घनसुपिरततावनद्धवादनाद । -पृ. ३८४ उत्त० ६. पृ० ५८०८१ ७. तारतरं स्वनत्सु मुखरितनिखिलाशामुखेषु शंखेषु ।- पृ० ५८० ८. मृदंगानकशंखकोलाहले।-पृ० ११ उत्त० १. कम्बुकुलमान्ये च पाञ्चजन्ये कृष्णकर परिग्रहनिरवधीनि व्यधादहानि । - पृ० ७६
Jain Education International
For Private & Personal Use Only
www.jainelibrary.org