Book Title: Yashstilak ka Sanskrutik Adhyayana
Author(s): Gokulchandra Jain
Publisher: Parshwanath Shodhpith Varanasi

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Page 348
________________ ३२० द्रविणोदशम् (समेधित महसं द्रविणोदशम्, ३२४(२) : अग्नि द्वयातिगः (परिकल्पितौशीर इव द्वयातिगानाम्, १३४०२ ) : रागद्वेषरहित दन्दशूकः (कुपितेनोर्ध्व चलितदृशा दन्दशूकेश्वरेण, ६६।४ ) : सर्प । दन्दशूकेश्वरः = शेषनाग दन्ति (१९४११ उत्त० ) : हाथी, पर्वत दुभ्यमानः (क्वचिद्दभ्यमानसागरगण २४९।२) : खेदित । दभ् धातु से दभ्यमान बना है । दर्दरीकम् (१०३।२) अनार ( दरदद्रवापाटल फलकान्ति दरदः ४६४१४ ) : हिंगु या हींग दशलोचन: ( दशमं दशलोचन दंष्ट्रां 2 : कुरात्, ४४२।२ ) : यम दृष्टान्त (२२३।५ उत्त० ) : मृत्यु दृतिः (चर्मकार दृतिद्युतिम् १२५|२) चमड़े की मसक दाक्षायणीदेशः (कर्बुरितसर्वदाक्षाय - णोदेशम्, ४६६, ६) : आकाश, हलायुध कोश में यह शब्द आया है । दावघाट : ( अखर्वगवंदार्वाघाटपेटक, २०७/५ उत्त० ) : सारस दारू (नादते दारखं पादपरित्राणम्, ४०८/१ ) : काष्ठ | देवदारु में दारु शब्द अब भी सुरक्षित है । बुदेलखण्ड में कहीं-कहीं लकड़ी को अभी भी दारू कहा जाता है | दासेरका १८५।१): ऊँट ( दलित दमासेरार्भक, Jain Education International यशस्तिलक का सांस्कृतिक अध्ययन द्वापर (३७२।८ ) : संदेह दिव्यचक्षुस् (१२८।१ ) : अन्धा द्विजाति: ( वसन्त इव समानन्दित द्विजातिः २१०१२ ) : कोकिल द्विजिह: ( ३४६।४ ) : दोगला, चुगलखोर, सर्प, दुर्जन द्विपः (१९९/२ उत्त० ) : हाथी द्विरदन: ( द्विरदनकुलेषु, ११।४ उत्त० ) : हाथी । संभवतया यहाँ द्विरद और नकुल दो पद हैं । श्रुतसागर ने एक पद माना है और हाथी अर्थ किया है । दिनाधिपः (१९७/३ उत्त० ) : सूर्य दिवाकीर्तिः ४० ३ | ४ ) : नाई (दिवाकीर्तेः नप्ता, दीदिवि ( अतिदीर्घ विशदच्छविभिददिभी, ४०१ ) : भात दीविन् ( उदीर्णदर्पदी वितुमुलकोलाहल, २०८१७ उत्त० ) : जल सर्प दुमलः ( बलवद्द्बलालोन्मीलितदुमलाकुलकलभप्रचारम्, १९९७ उत्त० ) : वृक्ष दुर्वर्णम् (दुतदुर्वर्णरस रेखारुचिभिरिवमरुमरीचिव चिभिः, ६६ २ ) : चांदी | सोमदेव ने इसका प्रयोग एकाधिक बार किया है । (१०८) दुस्फोट ( १४५.१ ) : मूसल द्रुहिणद्विजः (दुहिण द्विजकुल कोलाहले, २४८, ६) : हंस । ब्रह्मा का एक नाम द्रुहिण भी है । हंस उनका वाहन है । इसी आधार पर सोमदेव ने हंस के For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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