Book Title: Yashstilak ka Sanskrutik Adhyayana
Author(s): Gokulchandra Jain
Publisher: Parshwanath Shodhpith Varanasi

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Page 360
________________ ३३२ यशस्तिलक का सांस्कृतिक अध्ययन शर्करिलः (५२।९ उत्त०) : रेतीला अपने वश में करके राजकुमारी को प्रदेश सौंप दिया। शरमासुतः (१८७.८ उत्त०) : कुत्ता शेषा (शेषायां तन्दुलाः करे, ४१६१८): शष्कुलिः (५१२।९) : कचौड़ी आश:र्वाद शल्लकः (२००।४ उत्त०): सेही श्रायसम् (७०।५ उत्त०): कल्याणप्रद नामक जंगली पशु । इसके सारे शरीर (पाणिनि) में बड़े-बड़े काटे होते हैं। श्रीफलः (४५९। ४) : विल्व वृक्ष शम्भली (१८८१७ उत्त०): दासी स्तभः (१५०७) : बकरा शंभुः (३४६।२): सुख देने वाला स्थानम् (७०।२) : गजशाला शंसितव्रतः (४०८.६) : श्रुतसागर सकुटी: (सकुटीच्छुटिता घोटिकेव, ने इसका अर्थ दिगम्बर किया है। ५३६३ उत्त०) : अश्वशाला मनुस्मृति (११०४) में लिखा है कि सत्रम् (१९९।५) : दानशाला उसका अध्ययन करने वाला ब्राह्मण समयः (५२।२) : शास्त्र कहलाता है। समर्थस्थानम् (१९५।२ उत्त०) : शिखामणीयमान (४५४।२): शिर आश्रम के मणि की तरह होता हुआ। समांसमीना (१८६।१) : प्रतिवर्ष शिपिविष्टः (संहाराविष्टः शिपिविष्ट ज्याने वाली गाय । इव, १४७१४) : महादेव सर्वकषः (१४२।६) : यम शिवप्रियः (१९५१५ उत्त०) : धतूरा सलिलतूलिका(५२९।५): जलशय्या, पानी के बीच में बनाया गया शिशुमारः (२१४.६ उत्त०) : मगर शयनस्थान। (महा० ११८५६१६)। सवनगृहम् (५०७४) : स्नानघर शुचिः (४०८१३) : अग्नि संधिनी (१८६।२) : गभिणी होने के शुनीसूनुः (१९०।८।उत्त०) : कुत्ता । बाद वृषभाक्रान्त गौ। शर्पकाराति (४११४) : कामदेव, संवरः (२०६।४ उत्त.): शृंग वृक्ष कामदेव के लिए शूर्पकाराति शब्द संवाहकः (४०३१५): तेल मालिश कुषाण युग में प्रचलित हो गया था। करनेवाला। बुद्धचरित तथा सौन्दरानन्द में शूर्पक संस्थपतिः (२८९।१) : वास्तु-विद्या नामक मछुये की कहानी का उल्लेख विशेषज्ञ है । वह पहले काम से अविजित था संस्थितः (१५०१६) : मृत पर बाद में कुमुद्वती नामक राज. संसर्गविद्या (२०२१३) : श्रुतसागर कुमारी की प्रार्थना पर कामदेव ने . ने इसका अर्थ भरतशास्त्र किया है । वृक्ष Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org.

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