Book Title: Yashstilak ka Sanskrutik Adhyayana
Author(s): Gokulchandra Jain
Publisher: Parshwanath Shodhpith Varanasi

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Page 339
________________ यशस्तिलक को शब्द- सम्पत्ति कदलिका (कदलिकाग्र लग्नभुजगाशनवर्ह, ४६५।६ ) : ध्वजा कदली (कदली प्रवालान्तरंगम्, २००२ (०) : मृग उत्त० कन्दः (विषकिसलय कन्दाः, ५१६।६ ) : सूरण कन्दल: ( ६१३।५ ) : नवांकुर कमलानन्दन : (५४८९) सूर्य कन्तुः (जन्तुः कन्तु निकेतनम् १/४ ) : कमलबन्धु: (५७014) : सूर्य मनोहर ८९।९ उत्त० कन्था ( भयेन किं मन्दविसर्पिणीनां कन्या त्यजन्कोऽपि निरीक्षितोऽस्ति, त० ) : दुर्विध कुटुम्बेषु जरत्क - थापटच्चराणि, ५७/५ ) : कपड़ों को सिलकर बनाया गया गद्दा | देशी भाषा में इसे कथरी कहते हैं । श्रुतसागर ने कन्या को कथण्डिका कहा है । कपिलका ( तूर्णं सज्जसे ताम्बूलकपिलिकायाम्, २५०।७; मुखवासताम्बूल कपिलके, २९।२ उत्त० ) : डिब्बा या डिबिया । इस तरह ताम्बूलकपिलका का अर्थ हुआ पान का डिब्बा या पानदान । कमलः ( वनस्थली ष्विव सकमलासु, ३९ । २) : मृग | साहित्य में कमल का मृग अर्थ में प्रयोग कम मिलता है । सोमदेव के पूर्व बाण ने इसका प्रयोग किया है । कमली ( कमलीव दोषागमरुचिरपि, ४१।२) : चन्द्रमा | कमल का मृग अर्थ कोश में आता है । बाण ने मृग अर्थ में ३११ प्रयोग किया है । सोमदेव ने अर्थ मृग में तो कमल का प्रयोग किया ही है, "कमलो यस्यास्तीति कमली" बनाकर चन्द्रमा के अर्थ में कमली का प्रयोग किया है । जैसे मृग से मृगांक बनना है, उसी तरह कमल से कमली बना है | Jain Education International कर्करम् (शिखण्डित तटिनिकटकर्करम्, २०९।४ उत्त० ) : शिला, नदी के किनारे की पाषाण शिला । श्रुतसागर ने इसे पर्वतदन्त कहा है । कर्कारु ( ईषत्खन्नकर्कात्रर्कश, ४०५/१ ) : कलिंग फल, कुम्हड़ा ( अम० ) 1 छोटा कुम्हड़ा कर्कारु कहलाता है ( भाव० मिश्र ६ |१०|५६ ) | कर्मन्दिन् (कर्मन्दोव न तृप्यति विषविषमोल्लेखेषु, ४०८ २ ) : तपस्त्री करकः ( मेघोद्गीर्ण तत्कठोरकरका सारत्रसत्, ७४ । ६ ) : ओला करलः ( सारिकाशाव संकुलकुलायकरलोपकण्ठ, १०२।३ ) : वृक्ष | श्रीदेव ने एक अर्थ मचकुन्द भी दिया है । अर्थात् करल वृक्ष सामान्य अर्थ में भी प्रयुक्त होता है तथा मचकुन्द नामक वृक्ष विशेष के भी अर्थ में । करशाखा (१४२।३ ) : अंगुलि करटी ( चन्द्रार्धविंशतिनखः करटी जयाय, ३०१८ ) : हस्ती । महाभारत (१।२१०/२० ) में हस्ती के लिए करट शब्द आया है । For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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