Book Title: Yashodhar Charitam Author(s): Bhagchandra Jain Publisher: Sanmati Research Institute of IndologyPage 25
________________ तृतीय सर्ग • अभयरुचि क्षुल्लक-कथा को आगे बढ़ाते हुए कहते हैं-एक दिन मैं (यशोधर राजा) राजसभा के बीच राजसिंहासन पर विराजमान था कि काम से पीड़ित होकर मैं अमृतमती आदिक देवियों के रूपलावण्य, कला, वस्त्र, आभूषण, हाव-भाव आदि का चिन्तन करने लगा और फलतः अत्यन्त कामदाहजनक आसक्ति मेरे मन में पैदा होने लगी। उस समय मैंने विचार किया कि राजसिंहासन अपने पुत्र को देकर स्च्छन्दतापूर्वक अमृतदेवी के साथ सदा विषयभोगों का भोग करूंगा । जैसे इस लोक में प्राणियों को सन्ताप देने वाला पुरुष अपने पाप से अधोदशा को प्राप्त होता है वैसे ही पर को सन्ताप देने से तेजस्वी भानु भी अस्ताचल के शिखर से नीचे गिर पड़ा। पश्चिम दिशा में सभी यतीश्वर प्राणियों की दया के निमित्त ज्ञान-मुद्रा में स्थित होकर कायोत्सर्ग करने लगे। उस सायंकाल में कोई श्रावक सामायिक प्रतिक्रमण क्रिया करने लगे और कोई धर्मात्मा पुरुष स्वर्ग और मुक्ति की कामना से धर्मध्यान में तत्पर हो गये । और कोई विवेकीजन कर्म-बन्धन का नाश करने के लिए तथा आत्मस्वरूप की प्राप्ति के लिए, धैर्यपूर्वक शरीर का त्यागकर ध्युत्सर्ग क्रिया करने को उद्यत हुए । कोई विघ्न-विनाशक, अनादि अनंत, पंचपरमेष्ठी-वाचक णमोकार मंत्र का जाप जपने लगे। __कोई विवेकशील भवक दृढ़ आसन पर बैठकर तथा अपने चित्त को एकाग्र कर जिनेन्द्र का ध्यान करने लगे । (१-१०) - जैसे केवलज्ञान रूप सूर्य के अभाव में सज्जन पुरुष द्वादशांग का पठन-पाठन करते हैं, उसी प्रकार पदार्थों का प्रकाश करने के लिए मानवों ने दीपक जलाये । . जैसे जंबूद्वीप में कर्मभूमि के प्रारम्भ काल में रत्नत्रय रूप सन्मार्ग का उपदेश देने के लिए तीर्थंकर देव उत्पन्न होते हैं उसी प्रकार अन्धकार का नाश करने के लिए चन्द्रदेव का उदय हुआ । जैसे जिन भगवान् देशों-देशों में अपनी समवसरण विभूति के साथ विहार कर अपनी वाणी रूप किरणों के द्वारा जनता के अज्ञान रूपी तिमिर. का नाश करते हैं उसी प्रकार उदित चन्द्र ने अपनी किरणों से अन्धकार का नाश किया । जैसे जिनेश के द्वारा मिथ्यात्व स्वरूप अन्धकार के हटा देने पर मानवगण सुख पाने लगते हैं उसी प्रकार चन्द्रिका की चाँदनी सारे संसार में फैल गयी । सभी सदस्यगण अपने-अपने घर चले गये। तब काम-सुख का लोलुपी मैं विषयभोग करने की इच्छा से देवी अमृतमती के आठ चौक वाले महल की ओर हर्ष से उन्मत्त होकर चला। विस्मयजनक, उत्तम, उत्तुंग राजमहल के प्रथम द्वार पर पहुंचने पर जय-जयकार बोलने वाली प्रतिहारिणी को मैंने देखा । महीन और मुलायम वस्त्रों से सुशोभित प्रतिहारिणीPage Navigation
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