Book Title: Yashodhar Charitam
Author(s): Bhagchandra Jain
Publisher: Sanmati Research Institute of Indology

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Page 45
________________ षष्ठ सर्ग - मरण के बाद हम दोनों (यशोधर और चन्द्रमती का जीव) ने उसी उज्जयिनी नगर के अशुचि पदार्थों से व्याप्त कसाईखाने में पापकर्म के उदय से मुर्गी के उदर में जन्म धारण किया। एक दिन हम दोनों की माता जब प्रसवोन्मुख थी कि एक दुष्ट बिल्ली ने उसे खा लिया । देवयोग से किसी प्रकार उसी मुर्गी के पेट से अंडे के रूप में वर्तमान हम दोनों कूड़े-कचरे की दरार में गिर पड़े । हे राजन् ! जन्म से ही जननी-विहीन दीन हम दोनों ने एक मास तक शीत, उष्ण और वर्षा आदि की अनेक वेदनायें सही और भूख और प्यास से दुःखित होकर वहीं पड़े रहे। . एक दिन चाण्डाल की पत्नी ने हमारे मस्तक पर कचड़ा डाल दिया। उसके प्रहार की वेदना से त्रस्त होकर हम दोनों चिल्लाने लगे। हमारी आवाज को सुनकर उसने वहां से वह कचड़ा धीरे-धीरे हटाकर हमें देखा और हमारी सुन्दरता देखकर हमें वह अपने घर ले गयी। दूसरे किसी दिन वन से आते हुए चण्डकर्मा ने आहार के सन्दर्भ में इधरउधर घूमते हुए हम दोनों को देख लिया। . उस चण्डकर्मा ने ये दोनों मुर्गी के सुन्दर बच्चे राजा की क्रीड़ा के योग्य हैं, ऐसा समझकर हम दोनों को स्वयं ही यशोमति महाराज के पास ले गया। . वह यशोमति राजा भी हम दोनों को देखकर अत्यन्त प्रसन्न हुआ। संसार में अपने माता-पिता का दर्शन किसे हर्षोत्पादक नहीं होता ? (१-६) . राजा यशोमति ने हम दोनों के पालन-पोषण के लिए हमें चण्डकर्मा को वापस दे दिया। वह चण्डकर्मा भी हमें अपने घर ले गया और पिंजड़े में रहने की हमारी व्यवस्था कर दी। पानी पीकर कण खाकर तथा शीत हवा से रक्षित होकर हमारी एक रात 'पिंजड़े में सुख से बीती। इसके बाद दूसरे ही दिन महाराज यशोमति अपनी. पलियों और सेवकसमूह के साथ वनक्रीड़ा के लिए, फल-फूलों से सुशोभित सुन्दर वन में गया । हमारे पुण्य की प्रेरणा से प्रेरित होकर चण्डकर्मा भी महाराज यशोमति का वनगमन सुनकर हमारे पिंजड़े को साथ लेकर, वन-क्रीड़ा देखने के लिए साथ चल पड़ा । वहाँ चण्डकर्मा ने उस सुन्दर उद्यान में एक सात, खण्ड वाला. ऊँचा, शिखरों में जड़ित रत्नों की कान्ति से दैदीप्यमान, अत्यन्त वैभवशाली विशाल राजमहल देखा। (१०-१४)

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