Book Title: Yashodhar Charitam
Author(s): Bhagchandra Jain
Publisher: Sanmati Research Institute of Indology

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Page 72
________________ ६४ संकोच नहीं होता। इसमें कुल आठ सर्ग हैं और ६६० श्लोक हैं । अनुष्टुप् का प्रयोग सर्वाधिक है। प्रत्येक सर्ग के अन्त में वृत्त परिवर्तन हो जाता है । नायक यशोधर का चरित प्रमुख है और अन्य भवान्तर कथाएँ उपकथाओं के रूप में आयी हैं। रसों में शान्त रस को प्रधान रस की संज्ञा दी जा सकती है, क्योंकि संसार का चिन्तन काव्य की पृष्ठभूमि है। इसके बाद शृंगार रस का स्थान है । अन्य रसों का भी यथास्थान समावेश हुआ है । ऋतुओं का तथा पवंत और नगरों आदि का वर्णन भी महाकवि ने आवश्यकतानुसार किया है। इन्हीं प्रसंगों में रूपक, उपमा, उत्प्रेक्षा आदि अलंकारों का प्रयोग हुआ है। .... भाषा साधारणत: ठीक है । महाकाव्य में जो प्राञ्जल्य रहता है वह यहां अवश्य दिखाई नहीं देता। कहीं-कहीं भाषात्मक, क्रियात्मक व्याकरणात्मक त्रुटियाँ भी. मिलती हैं । वृत्तदोष भी कम नहीं हैं । इन के शुद्ध रूपों को हमने कोष्ठक में दे दिया है और मूल रूप को फुटनोट में इंगित कर दिया है । यहाँ हम इन दोषों के कतिपय उदाहरण प्रस्तुत करते हैं । व्याकरणात्मक त्रुटियाँ देखिए-१.२३; २.३१; '३.२; ३.१६, ३.२५, ३ २६, ३.३०, ३.७०; ४.७, ४.३२, ४.७४, ४.८८, ४.६४, ४.१०३, ४.१०५, ४.१११, ५.२०, ५.६६; ५.११७; ६.१७, ६.४५, ६.४६; ६.१६, ६.१३५; ७.१६; ७.२६, ७.३०, ७.५६, ७.६६-६७, ७. १२६; ८.१५, ८.२७. ८.७२, ८.८६, ८.११७, ८.१२६, ८.१५५। . ____ कहीं-कहीं भावाभिव्यक्ति स्पष्ट नहीं हो सकी । ऐसे उदाहरण बहुत हैं । कुछ 'उनमें उल्लेखनीय है-१.१५, १.६१, १.६७, २.५७, २.६६; ३.२५, ३.२६, ३.३०, ३,५७, ३.७०, ४.४३, ४.४८, ४.७४, ४.७८, ४.६५, ४.१०५, ४.१३१; ५.२६, ५८०; ६.२, ६.५, ६.३५, ६.१०६; ६.११-४, ६.१३२; ७.४, ७.१६, ७.५६, ७.६७, ७.७२; ७.१२०, ७.१२१, ७.१२६ । __ वृत्तदोष इस प्रकार दृष्टव्य हैं-प्रथम सर्ग-१.६, १८, २०, २६, २६, ३३, ६१, ६३, ६४, ६७; द्वितीय सर्ग - ५, १३, १५, १६, २६, ३१, ४५, ६२, ६६; तृतीय सर्ग - २, १६, २५, २८, २९, ३०, ३४, ४१, ५४, ७०; चतुर्थ सर्ग-७, १२, १३, २४, ३१, ३२, ५६, ६१, ७१, ७४, ७८, ९४, १०५, १११, पचम सर्ग-२, ७, २०, ५०, ६६, ११२, ११३, ११८, ११६; षष्ठ सर्ग३०, ४५, ६३, ७३, ७८, ११६; सप्तम सर्ग-४, ५, २६, ३०, ४२, ५६, ८२; अष्टम सर्ग-१५, ४३, ४७, ६२, ८३, ८६, १०५, १११, ११४, ११५, ११७, १३६, १४६, १५५ । । ___ ग्रन्थ का मूल अभिधेयक है याज्ञिक हिंसा को अप्रतिष्ठित करना। यज्ञहिंसा भी कितनी दुखदायक हो सकती है इसकी भी मीमांसा यहां की गयी है। इन सारे संदर्भो में यद्यपि कोई नवीनता नहीं है पर अपने ढंग से विषय को प्रस्तुत किया गया है। कात्यायनी देवी की पूजा हिंसक साधनों से होती रही

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