Book Title: Yashodhar Charitam Author(s): Bhagchandra Jain Publisher: Sanmati Research Institute of IndologyPage 66
________________ ५८ में जाते हैं । पापों में आसक्त तथा मिथ्यात्व की वासना से दूषित जीव नरक गति में जाते हैं । अतः मिथ्यात्व तथा मिथ्यात्वमूलक पाप का त्याग कर सुखदायी धर्मं का पालन करना चाहिए । जिनकfथत धर्म सुख की निधि एवं सज्जनों का मित्र है। मोक्ष का पथ है । धर्म ही माता तथा पिता है । धर्म ही बान्धव है, धर्म ही स्वामी है । धर्म ही स्वर्गादिक पदों का दायक है और संसार में धर्म ही श्रेष्ठ वस्तु है । यशोधरा की कथावस्तु का यही अभिधेय है । I " इस प्रकार अभ्यरुचि ने आठ पूर्व भवों की कथा सुनाई। प्रथम भव में वह उज्जयिनी का राजा यशोधर था जिसे उसकी पत्नी ने माँ के हाथ विषमिश्रित लड्डू खिलाकर मार डाला । माता और पुत्र मरकर द्वितीय भव में क्रमशः कुत्ता और मयूर हुए। वे ही तृतीय भव में क्रमश: सर्प-नेवला ( या सेही), चतुर्थ भव में मगरमच्छ, पंचम भव में बकरा-बकरी, षष्ठ भव में भैंसा बकरा, सप्तम भव में दो मुर्गा और अष्टम भव में जातिस्मरण के बोध से यशोधर के पुत्र-पुत्री युगल के रूप में अभयरुचि और अभयमती ने जन्म लिया। यह भव- वृत्तान्त सुनकर यशोधर ने संसार से विरक्त होकर सुदत्ताचार्य मुनि से जिन दीक्षा ले ली मारिदत्त भी क्षुल्लक युगल के गुरु के पास जाकर साधु बन गया । कथा का प्रारम्भ मारिदत्त और क्षुल्क युगल से प्रारम्भ होता है और उन्हीं दोनों के वार्ता - प से उसका अन्त होता है । महाकवि वाण की कादम्बरी की तरह, कथा का जहां से प्रारम्भ होता है वहीं आकर वह समाप्त हो जाती है ।, यशोधर की कथा का प्राचीनतम रूप हरिभद्रसूरिकृत समराइच्चकहा के चतुर्थ भव में प्राप्त है । वहाँ यशोधर नयनाबलि का नामोल्लेख हुआ है । मारिदत्त और नरबलि की घटनाएं वहीं नहीं मिलतीं । इसी प्रकार अभयमती और अभयरुचि दोनों भाई-बहिन के रूप में न होकर पृथक्-पृथक् देशों के राजकुमार-राजकुमारी हैं जिन्होंने कारणवश वैराग्य धारण किया है यह कथा यहाँ आत्मकथा के रूप में प्रस्तुत की गयी है जिसे यशोधर धन नामक व्यक्ति के लिए सुनाता है न कि अभयमती, अभयरुचि और मारिदत्त के लिए । उद्योतन सूरि ने कुवलयमाला प्रभंजनकृत यशोधरचरित्र की सूचना अवश्य दी है पर वह अभी तक अप्राप्य है । यशोधर की इसी कथा का विकास उत्तर काल में हुआ है। भट्टारक ज्ञान - कीर्ति (वि. सं. १६५९ ) ने प्रभंजन के साथ ही सोमदेव, हरिषेण, वादिराज, धनंजय, पुष्पदत्त और वासवसेन के नामों का भी उल्लेख किया है । वादिराज का चार सर्गों में लिखित संस्कृत का सुन्दर लघु काव्य है जिसेPage Navigation
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