Book Title: Yashodhar Charitam Author(s): Bhagchandra Jain Publisher: Sanmati Research Institute of IndologyPage 32
________________ धर्म को तुम जानते ही हो, दयोत्पादक, जिनोक्त अहिंसा लक्षण वाले शास्त्रों को भी जानते हो, पर वेद प्रतिपादित मार्ग (धर्म) को नहीं जानते हो। यज्ञ का करना भी धर्भ कहा गया है । मनु ने शान्ति और समृद्धि करने वाले हिंसात्मक यज्ञ को भी धर्म कहा है। जीवों की हिंसा करके पूजा करने से देवता प्रसन्न होते हैं। तब वे देवता मनुष्यों को शान्ति, पुष्टि, लक्ष्मी-वृद्धि व आरोग्य प्रदान करते हैं। यज्ञ-कार्य से उत्पन्न पुण्य से व्यक्ति नियम से ही इन्द्रपद व वैभवशाली राज्य प्राप्त करते हैं . और परलोक में सुख प्राप्त करते हैं । हे पुत्र ! जो तुमने कहा कि जो दूसरों को दुःख देते हैं, वह मरकर स्वयं अनेक दुःखों को प्राप्त होते हैं-यह ठीक नहीं है । संसार में द्विजगण के वेदमंत्रों से यज्ञ में देवों की पूजा के लिए जो जीव मारे जाते हैं, वे स्वर्ग में जाते हैं, ऐसा वैदिक ब्राह्मणों ने कहा है। इस. लोक में जिस प्रकार औषध के लिए खाया गया विष केवल वेदना-पीड़ा को दूर करता है उसी प्रकार धर्म के लिए की गयी हिंसा मनुष्यों के दुःखों को दूर करती है। इस: लिए वेद और यज्ञ में धार्मिक बुद्धि से दृढ़ विश्वास करके, हे पुत्र ! निडर होकर जीव-हिंसा का आचरण करो। (४६-५३) . . इस प्रकार माता के हिंसात्मक वचन सुनकर मैंने फिर कहा कि मिथ्यात्व के प्रभाव से तू स्वयं अंधी हो रही है। जो सर्वज्ञ है, सर्वदर्शी है, जगत का नाथ है, मंसार का हितैषी है, समस्त दोषों से रहित है, अनन्त गुणों का सागर है और इन्द्रिय विजयी जनों में श्रेष्ठ है उस जिनेन्द्र ने जो धर्म कहा है वह धर्म सर्वजीवों का हित करने वाला है, हिंसा से रहित है और सत्य है। अन्य धूर्तों के द्वारा कथित हिंसक धर्म सत्य नहीं है। प्रामाणिक पुरुष के वचन से वचन में सत्यता देखी जाती है तथा जो पुरुष विषयों में आसक्त हैं वे संसार में सत्पुरुष नहीं कहलाते । हे माता! यदि आपके मत में हिंसा करने से धर्म होता है, तब तो खटीक, चांडाल, व्याध, बढ़ई, लुहार आदिक सभी धर्मात्मा कहलायेंगे । ये सभी लोग निरन्तर जीव हिंसा करते हैं। निर्दयता से जीवों की हत्या करने वालों को यदि स्वर्ग प्राप्त होता हैं, तो नरक किनको प्राप्त होगा? जिसके माध्यम से इस लोक में कभी भी जीवों का घात होता है, सज्जन पुरुष ऐसे वेद को कभी भी स्वीकार नहीं कर सकते । वस्तुतः ऐसा वेद पाप का जनक है । धर्मतीर्थ के प्रवर्तक तीर्थंकर भगवान ने वेद नाम से जो सिद्धांत, शास्त्र और आगम कहा है, वह सब जीवों का हित करने वाला है, विद्वानों के द्वारा मननीय है और सब जीवों को अभयदान देने वाला है। जिनोपदिष्ट वेद ने जो धर्म कहा है, वास्तव में वही सच्चा धर्म है, स्वर्ग और मोक्ष का प्रधान कारण है और दया से परिपूर्ण है। अन्य धर्म वास्तव में यथार्थ धर्म नहीं हैं, दया से रहित हैं और हिंसा का प्रतिपादन करने वाले हैं। (५४-६३)Page Navigation
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