Book Title: Yashodhar Charitam
Author(s): Bhagchandra Jain
Publisher: Sanmati Research Institute of Indology

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Page 28
________________ २० जिनका छोड़ना भी कठिन है। अनन्त भवों के कारण हैं और जो अत्यन्त खल हैं ।' इसलिए दुख-परम्परा के जनक इस संसार-सुख को मेरी दूर से ही जलांजलि है और बहुत दुःखों के जनक, पाप को बढ़ाने वाले, इस गृहास्थाश्रम को भी मेरा दूर से ही प्रणाम ! मैं जिस अमृतमती के स्नेह से कामांध तथा उन्मत्त बना, उसका प्रेम आज मैंने उस नीच कुब्जक के ऊपर देखा। नरक के द्वार रूप इस नारी से मेरा मन भर गया । धूलि के समान राज्य और चंचल राज्यलक्ष्मी से भी खूब तृप्त हो चुका हूँ। जो विवेकी पुरातन पुरुष इस मायाजाल. को छोड़कर मोक्षसुख की कामना से युक्त हो दीक्षा के लिए वन गए, वे पुरुष बड़े भाग्यशाली हैं । मैं प्रभात वेला में ज्ञान रूपी तलवार से मोह रूपी भट वाले, खल काम को नाश कर, मुक्ति की दूती जिनमुद्रा को धारण करूंगा। (४५-५६)। राजन् ! जब मैं इस प्रकार जिनदीक्षा को उद्यत हुआ, मन में वैराग्य की . भावना आ रही थी। मेरा अन्तःकरण भी कामभोगों से विरक्त हो चुका था। इस प्रकार मैं ऊहापोह में पड़ा था । तब वह कामान्ध रानी आकर मेरे भुजपाश में . सो गयी जो अतीव निर्लज्ज थी, उद्वेग को पैदा करने वाली थी और जो दुष्ट पर पुरुष के साथ प्रेम करने में चतुर थी। तब मैंने अतीव विस्मय के साथ विचार किया। एक साहस तो इसने घर से बाहर जाते हुए किया और दूसरा साहस आकर मेरे भुजपंजर में प्रवेश कर पड़ गयी ! इस बात का विचार करते ही स्वर्ग और मुक्ति का देने वाला, सज्जनों से आदरणीय, मेरा वह वैराग्य सब चीजों पर दुगना हो गया। उस समय उस नारी के शरीर का स्पर्श मेरे दिल में वज्रमयी काँटे की तरह चुभने लगा। मेरा चित्त विवेक से परिपूर्ण हो रहा था। वह राग को छोड़ चुका था और शुभ परिणामों से पवित्र हो रहा था। मुझे प्रातःकाल आवश्य ही इस गृहस्थाश्रम को छोड़कर दुष्कर्म रूपी ईंधन को जलाने वाले तपगृह को ग्रहण करना चाहिए। (५७-६२)। ___ इस प्रकार के विचारों में निमग्न ही था कि मेरा जयनाद करती हुई, प्रभात. कालीन मांगलवाद्यों की धीर ध्वनि, जनों को जगाने का उपक्रम करने लगी। उस प्रभात की वेला में मुझे जगाने के लिए सभी बन्दीगण आकर मधुर वचनों से प्रभातकालीन मांगलिक गीत गाने लगे। हे महाराज ! धार्मिक पुरुष अपने-अपने विस्तरों से उठकर, सामायिक और धार्मिक धर्मध्यान रूप क्रियाएँ करने लगे। जिस प्रकार जिनरूपी सूर्य के उदय होने पर अन्य मतावलम्बी जन कांतिहीन हो जाते हैं, समस्त जनों के लोचन स्वरूप सूर्य के उदय होने पर चन्द्र भी शोभाहीन हो गया, जैसे तीर्थंकर भगवान् सज्जन पुरुषों के चित्तरूपी कमल को विकसित करते हैं उसी प्रकार जगत को आनंद देने वाला कमलों को विकसित करने वाला भुवनभास्कर उदित हुआ । जैसे तीर्थंकर देव लोक में मिथ्या ज्ञाना

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