Book Title: Vishwashanti aur Ahimsa
Author(s): Mahapragna Acharya
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 42
________________ ऐसे मिला मुझे अहिंसा का प्रशिक्षण - गणाधिपति तुलसी अहिंसा का पहला बोधपाठ ___ मैंने ग्यारह वर्ष की अवस्था में पूज्य कालूगणी के पास जैन मुनि की दीक्षा स्वीकार की । जैन मुनि की दीक्षा का पहला व्रत है अहिंसा और पांचवां व्रत है अपरिग्रह । दीक्षा स्वीकार करते ही पूज्य कालूगणी ने प्रतिबोध देते हुए कहा-“अब तुम मुनि बन गए हो। मुनि को हर काम जागरूकता से करना होता है। तुम्हें भी हर क्षण जागरूक रहना है। तुम्हारा पहला पग जागरूकता के साथ उठेगा। चलते समय तुम्हें देखकर चलना है। इसलिए कि तुम्हारे पैर के नीचे आकर कोई छोटा-सा जन्तु भी मर न जाए। बोलते समय तुम्हें जागरूकता के साथ बोलना है। इसलिए कि तुम्हारे शब्दों से किसी को आघात न पहुंचे। भोजन के समय तुम्हें जागरूकता से भोजन करना है। इसलिए कि तुम किसी दूसरे का अधिकार न छीन लो। तुम्हारी आस्था संविभाग में रहेगी। इसलिए कि तुम अकेले ही किसी वस्तु के स्वामित्व का दावा न करो। तुम्हें न किसी पदार्थ के प्रति मूर्छा करना है और न किसी प्राणी के प्रति अभिद्रोह ।” मैंने मुनि बनते ही पूज्य कालूगणी से अहिंसा का यह पहला बोधपाठ पढ़ा। इससे अहिंसा में मेरी आस्था पुष्ट हुई । आस्था की वह प्रतिमा आज तक कभी भी खण्डित नहीं हुई। अहिंसक का व्यवहार — दीक्षा स्वीकार करने के एक सप्ताह बाद मैंने दशवैकालिक सूत्र का पाठ शूरू किया। उसमें पढ़ा-संयम से चलो,संयम से खड़े रहो,संयम से बैठो,संयम से सोओ, संयम से खाओ और संयम से बोलो। Jain Education International For Private & Personal Use Only www.jainelibrary.org

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