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विचारमाला.
वि० ७..
दोहा - ऊंच नीच निरगुण गुणी, रंक नाथ अरु भूप ॥ हूं घट बढ़ कासों कहूं, सब आनंदस्वरूप ॥ ११ ॥
टीका: - वर्णाश्रमकर यह ऊंच है, तथा यह नीच है, यह दैवी संपत्ति से रहित पामर है, यह उत्तम जिज्ञासु है, यह धनके अभाव कंगाल हैं, यह ग्रामाधीश हैं औ यह राजा हमारेकर पूज्य है, ऐसी प्रतीति अज्ञानरूप उपाधिके बलकर अज्ञों को होने है; परंतु निवारण आत्मा के साक्षात्कारवाला जो मैं, सो पूर्व उक्त रीति से किसके प्रति अधिक न्यून कहूँ; जाते सर्व मोकूँ आनंद स्वरूप प्रतीत होवे है । सो कहा है हरितत्त्वमुक्तावलि - में : - " परमात्मा के ज्ञान से देह अभिमान के निवृत्त भये, जहां जहां विद्वान का मन जावै, तहां तहां अद्वितीय ब्रह्मही देखे है " ॥ ११ ॥
जगतकी प्रतीतिमें मुख्य कारण अज्ञान कहा । अब अवांतर कारण मन कहे हैं:दोहा - मन उन्मेष जगत भयो, बिन उ