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वि०.८ . आत्मवान् स्थितिवर्णन निवृत्तिद्वारा सर्व इच्छाओंकी निवृत्तिते शांतचित्त हैं तिन विद्वानोंको सर्वं जगत सुखरूप प्रतीत होवै है, याते तापोंकी निवृत्ति अर्थ विद्वान्की प्रवृत्ति संभव नहीं। सो तृप्तिदीपमें कहा है। जब यह विवान अपने आत्माको इस रीतिसे जानता है यह प्रत्यक् अभिन्न ब्रह्म मैं हूँ तब किसकी इच्छा करता हुआ औ किसकी काः मना अर्थ शरीरको आश्रय करके तपायमान होवै है"१२
ननु अंतरसुखकी उपलब्धिसे विद्वानको सर्व जगत् सुखरूप प्रतीत होवै, तो विषयी औ उपासककोभी सुखकी उपलब्धिसे सर्व जगत सुखरूप प्रतीत हुआ चाहिये? तहां सुनों:दोहा-विषयानंद संसार है, भजनानंद हरिदास ॥ ब्रह्मानंद जीवन्मुक्त, भई वा-;' सना नास ॥ १३॥
टीकाः-विषयी पुरुषोंको स्रक चंदन वनिता आदि विषयोंकी समीपतासे आनंद होवे है, याते क्षण