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.. विचारमाला. टीका-जाते मैं चैतन्यः आत्मा हूं औ यह जगत इंद्रजालकी न्याई मिथ्या है, ताते मैं पंडित हूं तू मूर्ख है, यह हमारा शत्रु है, वह मित्र है, यह जो उपमाते शुन्य जगत्संबंधी कथा है, सो मेरे आत्मामें कैसे बने । यह जगत इंद्रजालकी न्याई मिथ्या है, यह तृप्तिदीपमें कहा है:- " यह द्वैत अचिंत्यरचनारूप होनेते मिथ्या है " ॥६॥
पुनः आत्मामें देहादि पदार्थोंका अभाव कहे हैं:दोहा-देही देह न हौं कछु, मुक्तबद्ध नहिं । होय॥ यती न विषयी तप अतप,नाही एक न दोय ॥७॥ पूर्वपश्चिम उर्ध्व अध, उत्तर दच्छिन नाहिं ॥ लघु दीर्घ न्यारो मिल्यो, नहिं बाहिर नहिं माहिं ॥८॥ नहि उत्पत्ति न वृद्धि लय, रूप रंग रस भेद ॥ नहिं योगी भोगी नहीं, नहिं स्थीर नहिं खेद ॥९॥