Book Title: Uttaradhyayan Sutram Part 01
Author(s): Atmaramji Maharaj, Shiv Muni
Publisher: Jain Shastramala Karyalay

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Page 6
________________ और दर्शन आगमों के अर्क से ओत-प्रोत और सुवासित था। उनके उठने, बैठने, चलने आदि क्रियाओं से 'जयं चरे जयं चिट्ठ' आदि सूत्र व्याख्यायित और प्राणवन्त बनते थे। अप्रमाद के संवाद उनके सांसों में सुवासित बनकर जगत के समक्ष महावीर के सच्चे 'भिक्षु' का प्रतिमान प्रस्तुत करते थे। आगमों के शब्द-शब्द का मर्म उनकी प्रज्ञा के साथ-साथ आचार में भी आकार पाता था। निःशब्द है उनका व्यक्तित्व । आकाश को हथेलियों में बांधने का बाल प्रयत्न है उनके बारे में कुछ कहना। आचार्यश्री का कृतित्व भी जहां परिमाण में अत्यन्त विशाल है वहीं गहराई में भी अपरिमित और अगाध है। जिस भी आगम पर आचार्यश्री की लेखनी चली, उसी के अतल को उसने छू लिया। सुखद आश्चर्य है कि धर्म और दर्शन के गूढ़तम रहस्यों को उन्होंने इतनी । सरलता से प्रस्तुत कर दिया कि उसे साधारण से साधारण बुद्धि का अध्येता भी सरलता से ' हृदयंगम कर सकता है। जन-सामान्य पर आचार्य श्री का यह उपकार सदाकाल स्मरणीय और समादरणीय रहेगा! . प्रस्तुत आगम आचार्य श्री की लेखनी से व्याख्यायित है। पाठक स्वयं इस आगम का। अध्ययन कर आचार्य श्री के विशाल दृष्टिकोण को हृदयगम कर सकेंगे। आचार्य श्री जी द्वारा व्याख्यायित श्री उत्तराध्ययन सूत्र एक विशाल ग्रन्थ है। इसकी विशालता को देखते हुए इसे तीन भागों में प्रकाशित करने का विचार रखा गया है। पूर्व प्रकाशनों में भी इसे तीन ही भागों में । प्रकाशित किया गया है। प्रस्तुत प्रथम भाग में प्रथम से तेरह अध्ययन तक की विषय वस्तु ग्रहण की गई है। अस्तु, प्रस्तुत पुस्तक में पाठक तेरह अध्ययनों का स्वाध्याय कर सकेंगे। ____ जिनशासन की महती कृपा से मुझे यह पुण्यमयी अवसर उपलब्ध हुआ है कि पूज्यश्री के , आगमों को जनसुलभ बनाने में अपना योगदान समर्पित कर सकू। पूज्यश्री के अदृष्ट आशीर्वाद । का ही यह सुफल है कि जैन जगत के अग्रगण्य श्रावकों में यह संकल्प जगा है कि महाप्रभु महावीर की वाणी के सरलतम संस्करण प्रकाश में आएं जिससे विभ्रमित जगत को एक नवीन दिशा मिल सके। इस कार्य में मैं निमित्त भर हूँ। परन्तु अपने निमित्त भर होने को मैं अपना । महान पुण्य मानता हूँ। आत्म-ज्ञान-श्रमण-शिव प्रकाशन समिति साधुवाद की सुपात्र है जो पूरे १ समपर्ण और संकल्प से आचार्य भगवन के साहित्य के प्रकाशन की दिशा में त्वरित गति से । गतिमान है। __मेरे सुशिष्य मुनिरल श्री शिरीष मुनि जी महाराज एवं ध्यान साधना को समर्पित साधक, श्री शैलेश जी का श्रम भी इस संपादन-प्रकाशन अभियान से पूर्ण समर्पण भाव से जुड़ा हुआ है। वे सहज ही मेरे आशीष के सुपात्र हैं। उनके अतिरिक्त जैन दर्शन के अधिकारी विद्वान श्री , ज.प. त्रिपाठी ने मूल पाठ पठन व श्री विनोद शर्मा ने प्रूफ पठन तथा प्रकाशन दायित्व का , सफल संवहन कर श्रुत सेवा का शुभ अनुष्ठान किया है। तदर्थ उन्हें मेरे साधुवाद! -आचार्य शिव मुनि आत्म पब्लिक स्कूल, लुधियाना : १-१-२००३

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