Book Title: Upnishado ka Jain Tattvagyan par Prabhav Author(s): Anita Bothra Publisher: Anita Bothra View full book textPage 3
________________ प्रस्तुत की गयी है । भगवतीसूत्र में रूढ मान्यता के अनुसार ३६००० प्रश्नोत्तर शब्दबद्ध किये गये हैं । राजप्रश्नीयसूत्र में निहित केशीकुमार श्रमण और राजा प्रदेशी का संवाद सुविख्यात है । जिस प्रकार उपनिषदों में गद्य, पद्य एवं गद्य-पद्य मिश्रित भाग दिखायी देते हैं वही तरीका जैन अर्धमागधी आगमों में भी पाया जाता है। दोनों के गद्यभाग की यह विशेषता है कि गद्य होने के बावजूद भी उसमें ध्वनि की दृष्टि से एक विशिष्ट 'लयबद्धता' की अनुभूति होती है । लयबद्धता के आचारांग सूत्र में निहित कुछ उदाहरण देखिए - नालं ते तव ताणाए, सरणाए वा । तुमंपि तेसिं नालं ताणाए वा, सरणाए वा ।५ एस से परमारामो, जाओ लोगम्मि इत्थीओ।' इसी प्रकार तैत्तिरीय और बृहदारण्यक आदि उपनिषदों में भी लयबद्ध वाक्यों की रचना पायी जाती है । जैसे कि - यतो वा इमानि भूतानि जायन्ते, येन जातानि जीवन्ति, यत्प्रयन्त्यभिसंविशन्ति, तद्विज्ञिज्ञासस्व तद्ब्रह्मेति । असतो मा सद्गमय, तमसो मा ज्योतिर्गमय, मृत्योर्मा अमृतं गमय । 'समीकरणात्मक गोल वृत्ताकार वाक्यरचना', अर्धमागधी आगम एवं उपनिषदों में समान रूप से देखी जा सकती है । जे गुणे से आवट्टे से गुणे । जहा अंतो तहा बाहिं, जहा बाहिं तहा अंतो ।" जे एगं जाणइ, से सव्वं जाणइ । से सव्वं जाणइ, से एगं जाणइ । १२ इसी प्रकार की वृत्ताकार रचना तैत्तिरीय आदि उपनिषदों में भी पायी जाती है । जैसे कि प्राणो वा अन्नम् । शरीरमन्नादम् । प्राणे शरीरं प्रतिष्ठितम् । शरीरे प्राणः प्रतिष्ठितः । तदेतदन्नमन्ने प्रतिष्ठितम् । वाङ् मे मनसि प्रतिष्ठिता मनो मे वाचि प्रतिष्ठितं । १४ ‘उपमा, दृष्टान्त एवं रूपकों की भरमार', उपनिषदों एवं उत्तराध्ययन, भगवती आराधना जैसे प्राचीन जैन आगमों की खासियत है । बृहदारण्यकोपनिषद में कहा है कि रथचक्र के आरे जिस प्रकार चक्र की नाभी में प्रतिष्ठित होते हैं उसी प्रकार जगत् के सब वस्तु जात, प्राणों में प्रतिष्ठित है । १५ यही उपमा भगवती आराधना में अहिंसा के लिए उपयोजित की गयी है । मुण्डकोपनिषद में ब्रह्म और स्थावर जंगम पदार्थों के लिए मकडी और उसके जाल की उपमा प्रस्तुत की गयी है । १७ भगवती आराधना में कहा है कि जैसे रेशम का कीडा अपने ही मुख से तार निकाल कर अपने को बाँधता है वैसे दुर्बुद्धि मनुष्य विषयरूप पाशों से खुद को बाँधता है । १८ कठोपनिषद में आत्मा के बारे में कहा है कि वह अणु से भी अणु है और महत् से भी महान है ।९ यही कल्पना प्रायः भगवती आराधना में अहिंसा के बारे में उपयोजित की गयी है । जैसे कि - णत्थि अणूदो अप्पं आयासादो अणूणयं णत्थि । जह जह जाण मल्लं ण वयमहिंसासमं अत्थि ।।२० जैन और उपनिषदकालीन ऋषि दोनों भी द्रव्ययज्ञ के विरोधी होने के कारण दोनों में 'यज्ञसम्बन्धी रूपक' ही जादा तर पाये जाते हैं । उत्तराध्ययनसूत्र में हरकेशीय, इषुकारीय एवं यज्ञीय इन तीनों अध्ययनों 3Page Navigation
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