________________
ऐहिक सुख भी वेदनीयकर्म के विपाक पर और पुरुषार्थ पर अवलम्बित है । खास कर दीर्घायुष्य माँगा नहीं जा सकता और दिया भी नहीं जा सकता । ५६
४) प्रश्न : विदर्भ देश का भार्गव प्रश्न पूछता है कि, 'कौन कौनसे देव इन्द्रियों का प्रकाशन करते हैं और उनमें वरिष्ठ कौन है ?' पिप्पलाद मुनि कहते है कि, 'मन - चक्षु - श्रोत्र आदि इन्द्रियों को धारण करनेवाले देव आकाश, वायु, अग्नि, उदक, पृथ्वी और वाणी हैं' । ५७
जैन तत्त्वज्ञान में इन्द्रियविचार कुछ अलग ही तरीके से किया है । जगत् के सभी जीवों की वर्गवारी एक इन्द्रियवाले, दो इन्द्रियवाले इस प्रकार की है । मनुष्यप्राणी पाँच इन्द्रियाँ एवं मन से युक्त है । इन्द्रियाँ एवं सभी शरीर - मानस विशेषताएँ हरेक जीव को उसके 'नामकर्म' के अनुसार प्राप्त होती हैं ।५८ इन्द्रियों का आधिपत्य वायु, अग्नि आदि देवताएँ नहीं करती । तात्त्विक मतभेद यहाँ इतना स्पष्ट है कि पृथ्वी, वायु, अग्नि देवताएँ ही नहीं है । ये सब पृथ्वीकायिक, वायुकायिक आदि जीवों के समूह रूप हैं ।५९
५) मुण्डक : मोक्षावस्था में चक्षु आदि सब इन्द्रियाँ अपने-अपने देवता की ओर जाते हैं । कर्म और विज्ञानमय आत्मा अत्यन्त श्रेष्ठ और व्ययरहित ब्रह्म में विलीन होते हैं । ६०
जैन अवधारणा के अनुसार मोक्षगामी जीव शरीररहित और कर्मरहित होकर शुद्ध चैतन्यस्वरूप हो जाता है । स्वाभाविक ऊर्ध्वगति के अनुसार लोकान्त के अग्रभाग में स्थित सिद्धशिला पर केवल अस्तित्व स्वरूप से निवास करता है । मोक्षगामी जीव का हो या संसारी जीव का हो, शरीर और सभी इन्द्रियाँ पुद्गल याने परमाणुस्वरूप ही होती हैं । मृत्यु के उपरान्त वे कहीं गमन नहीं करती । दहन आदि क्रिया से भस्मीभूत स्वरूप में यहाँ अवस्थित होती है । हरेक संसारी जीव तैजस और कार्मण दोनों शरीर साथ में ही लेकर पुनर्जन्म धारण करता है । ६२ उनके शरीरों के विलीन होने की कोई भी सम्भावना नहीं है ।
६) माण्डुक्य : इस उपनिषद में तथा अन्य भी उपनिषदों में 'जाग्रत्', 'स्वप्न', 'सुषुप्ति' और 'तुरीय' इन चार अवस्थाओं का विस्तृत वर्णन पाया जाता | स्वप्न को, निद्रा भी कहा है । सुषुप्ति, स्वप्नरहित प्रगाढ निद्रा है । तुरीय मोक्षावस्था है । इन चारों अवस्थाओं की मनोविश्लेषणात्मक चिकित्सा उपनिषद की एक विशेषता है। खासकर सुषुप्ति अवस्था में जीवात्माद्वारा जो प्रज्ञानमय आनन्द पाया जाता है, उसका वर्णन उपनिषद समरसतापूर्वक करते हैं । ६३
जैन अवधारणा प्रायः इसके विपरीत ही है । निद्रावस्था का विशेष विचार 'दर्शनावरणीयकर्म' के अन्तर्गत किया जाता है । दर्शनावरणीय के नौं प्रकारों में से पाँच प्रकार निद्रा से सम्बन्धित हैं, जैसे निद्रा, निद्रानिद्रा, प्रचला, प्रचलाप्रचला, स्त्यानगृद्धि | १४
11