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जैनदर्शन की सुघटित कथन पद्धति :
* ज्ञानमीमांसा : प्राचीन जैनग्रन्थों में मति-श्रुत-अवधि-मन:पर्याय एवं केवलज्ञान ये ज्ञान के पाँच प्रकार, उनका प्रत्यक्ष और परोक्ष प्रमाणों में विभाजन, प्रत्येक के प्रकार-उपप्रकार तथा उन प्रकारउपप्रकारों का अन्तर विस्तृतरूप से बताया है । तत्त्वार्थ जैसे दार्शनिक ग्रन्थ में ही नहीं किन्तु उपनिषद के प्राय: समकालीन जैनग्रन्थों में भी (जैसे व्याख्याप्रज्ञप्ति, उत्तराध्ययन आदि) ज्ञानमीमांसा सुगठित रूप से अंकित की हुई है।
यद्यपि उपनिषद ज्ञानकाण्ड है तथापि ज्ञान संकल्पना की सुव्यवस्थित रचना यहाँ नहीं पायी जाती । कुछ प्रासंगिक पारिभाषिक शब्दों के अलावा जादा स्पष्टीकरण दिखायी नहीं देता । वे शब्द मुख्यत: इस प्रकार के हैं - ज्ञान, विज्ञान, पराविद्या, अपराविद्या, अज्ञान, अविद्या इ. ।
* कर्मसिद्धान्त और पुनर्जन्म : जैनों का पुनर्जन्मसिद्धान्त सम्पूर्णतया कर्मसिद्धान्त से जुड़ा हुआ है और कर्मसिद्धान्त से निष्पन्न है । मन-वचन-काया की प्रत्येक क्रिया कर्म है । कर्म पुद्गलमय है । कषाय और योग के माध्यम से सूक्ष्मतम कर्मवर्गणाओं का आत्मा के साथ बन्ध होता है । बन्ध के मुख्य चार प्रकार, प्रकृतिबन्ध के मुख्य आठ प्रकार आदि अनेक प्रकार-उपप्रकारों से पूरा कर्मसिद्धान्त पुष्पित-फलित हुआ है । श्वेताम्बर-दिगम्बर दोनों ने करीबन ५० प्रमुख ग्रन्थ ऐसे लिखे हैं जिनका मुख्य विषय कर्मसिद्धान्त है । सृष्टिकर्ता ईश्वर नकारने के कारण स्वयंचलित कर्मसिद्धान्त को जैनदर्शन में अनन्यसाधारण महत्त्व है।
उपनिषदों में खोजकर भी कर्मसम्बन्धी विवेचन अत्यल्प मात्रा में पाया जाता है । 'जैसा कर्म करे, वैसा फल मिलता है', इतनाही सामान्य स्वरूप इसमें दिखायी देता है । शुभ और अशुभ कर्म, पाप-पुण्य संकल्पना, सत्कृत्य और सदाचरण से देव और मनुष्यजन्म, दुष्कृत्य करनेवालों को तिर्यंचजन्म - इस प्रकार के मर्यादित विचार उपनिषद में पाये जाते हैं । ईशोपनिषद् में 'न कर्म लिप्यते नरे ।' तथा 'कुर्वन्नेवेह कर्माणि जिजीविषेत् शतं समाः ।'७° इसी प्रकार बृहदारण्यक में कहा है कि, 'यत्कर्म कुरुते तदभिसंपद्यते ।'७९ कर्मसम्बन्धी इन विचारों पर अगर दृष्टिपात करे तो दिखायी देता है कि सैद्धान्तिक दृष्टि से ये वचन मात्र सामान्य है, सुभाषितपर है।
* नीतिशास्त्र : जैनों की विशेषता है कि उन्होंने मोक्षमार्ग के तीन समन्वित घटक (रत्न) बताये हैं । उनका तीसरा घटक चारित्र है । चारित्र का मतलब है नीति और अध्यात्म के अनुकूल वर्तन । साधुचारित्र मुख्यतः अध्यात्मप्रधान है । श्रावकों का चारित्र प्रायः मूलगामी नीतितत्त्वों से पूरी तरह भरा हुआ है । पाच सुप्रसिद्ध महाव्रतों पर आधारित अणुव्रत, गुणव्रत एवं शिक्षाव्रतों पर आधारित गृहस्थधर्म अनेक उच्च नैतिक मूल्यों को उजागर करता है ।