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विविध उपनिषदों में निहित संवादों में, उपनिषदों का नीतिशास्त्र बिखरे हुए स्वरूप में पाया जाता है । तैत्तिरीय उपनिषद का, ‘सत्यं वद, धर्मं चर --- मातृदेवो भव, पितृदेवो भव --- यानि अस्माकं सुचरितानि तानि त्वयोपास्यानि, नो इतराणि'७२ -यह नीतिउपदेश बहुत ही प्रसिद्ध है । बृहदारण्यक उपनिषद में निहित दान, दमन और दया पर आधारित उपदेश भी वारंवार उद्धृत किया जाता है । बृहदारण्यक का याज्ञवल्क्य-मैत्रेयी संवाद मूल्याधिष्ठित संवाद का चरमोत्कर्ष है । छांदोग्योपनिषद में कहा है कि, 'व्यसन-चौर्य-सुरापान-गुरुस्त्रीसंभोग-ब्रह्मज्ञानी को मारनेवाला, इन सबको अधोलोक की प्राप्ति होती है।'
जैन तत्त्वज्ञान में और उपनिषदों में निहित नीतिमूल्यों का सारासार दृष्टि से अगर विचार करें तो हम इस निष्कर्ष पर आते हैं कि, दोनों की अलग-अलग विशेषताएँ हैं । लेकिन, 'जैन चारित्राराधना उपनिषदों से प्रभावित है', इस प्रकार का विधान हम नहीं कर सकते ।
* लोकसंकल्पना : दोनों परम्पराओं में त्रैलोक्य की अवधारणा कायम है परन्तु जैनों में ऊर्ध्वलोक, मध्यलोक, अधोलोक इन तीन लोकों का विस्तार, प्रमाण एवं विभाग व्यवस्थित रूप से दिया है । स्वर्ग के पटल और नरकों के बिल इन दोनों की संख्या, उत्तरोत्तर श्रेष्ठ-कनिष्ठता विस्तृत रूप में वर्णित है । मध्यलोक को मनुष्यलोक कहा है । उसके बीचों बीच स्थित त्रसनाडी में मनुष्य और तिर्यंचों का अस्तित्व कहा है । जीवों की चार गतियाँ मानी है । कौनकौनसे कर्मों से, कौनकौनसे गतियों का बन्ध होता है, इसका भी वर्णन है ।
उपनिषदों में नरक की अवधारणा कहीं भी स्पष्ट रूप से नहीं पायी जाती । उनके अनुसार लोक तीन हैं - देवलोक, पितृलोक और मनुष्यलोक । इन लोकों के प्रति ले जानेवाले तीन मार्ग या यान भी वर्णित है, वे हैं - देवयान, पितृयाण और मनुष्ययान । पितृलोक, पितृयाण तथा पितर और श्राद्धविधि का उल्लेख उपनिषदों की विशेषता है ।७५ जैन तत्त्वज्ञान में पिण्ड, श्राद्ध, पितर इनमें से किसी को भी स्थान नहीं दिया है । विशेष कथनीय यह है कि ऋग्वेद से लेकर पुराणों तक पितृ, पिण्ड एवं श्राद्ध ये संकल्पनाएँ अविरत रूप से दिखायी देती हैं । इस संकल्पनाओं का तनिक भी प्रभाव जैनग्रन्थों में दिखायी
नहीं देता ।
उपसंहार और निष्कर्ष :
* निबन्ध की प्रस्तावना में, शोधनिबन्ध के शीर्षक में निहित गृहीतक की समीक्षा की है । निबन्ध का मुख्य प्रयोजन है कि, 'उपनिषदों का तत्त्वज्ञान एवं जैन प्राचीन प्राकृत ग्रन्थों में निहित तत्त्वज्ञान'इनकी तुलना करके, उपनिषदों का जैन तत्त्वज्ञान पर प्रभाव है या नहीं ; अगर है तो कौनसे मुद्दों में हैं ? और अगर नहीं है तो उनके तात्त्विक मतभेद भी सामने लाना ।
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