________________
* प्रारम्भ में स्पष्ट किया है कि यद्यपि छह वैदिकदर्शनों का मूलाधार उपनिषद हैं तथापि जैन तत्त्वज्ञान में कभी भी उपनिषदों को सामने रखकर अपनी तत्त्वप्रणाली और आचार प्रस्तुत नहीं किया है ।
* ऐतिहासिकता की दृष्टि से यह बताया है कि प्राचीन प्राकृत आगम और उपनिषद सामान्यत: तुलनीय हैं।
* शीर्षक में निहित प्रभाव का प्रारूप प्रायः दोनों के शैलीगत साम्य के कारण है । आचारांगसूत्र का आत्मवर्णन और कठोपनिषद का आत्मवर्णन आश्चर्यकारक तरीके से साम्य रखता है । अन्तर केवल भाषा का ही है । संवाद, गद्य-पद्य की मिश्रता, गद्य में निहित लयबद्धता, समीकरणात्मक गोल वृत्ताकार वाक्यरचना, उपमा, दृष्टान्त एवं रूपकों की भरमार - ये सब शैलीगत साम्य के मुख्य मुद्दे हैं । आत्मा एवं मोक्षवर्णन की प्रधानता तथा शैली का बहिरंग साम्य उनके समकालीन होने का द्योतक है, न कि किसी के किसी पर प्रभाव का ।
* उपनिषद संज्ञा में अन्तर्भूत गूढवाद, कई उपनिषद्गत वाक्यों में अंकित है । इसके बिल्कुल विपरीत पद्धति जैन तत्त्वज्ञान की है । समग्र विश्व के विश्लेषण पर आधारित जैन तत्त्वज्ञान, वास्तववादी है और सबके लिए खुला है।
* एक और महत्त्वपूर्ण भेद यह है कि उपनिषद में निहित ज्ञानकाण्ड, वैदिक कर्मकाण्ड के प्रतिक्रिया स्वरूप है । निर्ग्रन्थ तत्त्वज्ञान स्पष्टतः प्रतिक्रियात्मक नहीं है । षड्द्रव्य, नवतत्त्वों की अवधारणाएँ, नि:संशय मूलगामी है ।
* सर्वं खलु इदं ब्रह्म । अयमात्मा ब्रह्म । अहं ब्रह्मास्मि । तत्त्वमसि । - इन चार मूलाधार उपनिषद वाक्यों की समीक्षा, शोधनिबन्ध में यथास्थान अन्तर्भूत की है । सारांश में हम कह सकते हैं कि विभु-ब्रह्म की संकल्पना जैन तत्त्वज्ञान के ढाँचे में नहीं ठीक बैठती । 'ब्रह्म' शब्द का प्रयोग जैन तत्त्वज्ञान में कही नहीं पाया जाता ।
* 'सृष्टि की उत्पत्ति किसी के द्वारा होना'-यह प्रमुख दस उपनिषदों में एक नि:संदिग्ध गृहीतक है । शोधनिबन्ध में सृष्ट्युत्पत्तिविषयक १०-१२ अलग-अलग मान्यताएँ सन्दर्भसहित दी हैं । उनकी अन्तर्गत विसंगति को देखकर हम कह सकते हैं कि ये वैदिक ऋषियों के प्राय: कल्पनाविष्कार हैं । इन मतमतान्तरों पर सूत्रकृतांग नामक ग्रन्थ ने उपस्थित की हुई प्रतिक्रिया निबन्ध में दी है । जैन दृष्टि से त्रैलोक्य अविनाशी है तथापि उसकी उत्पत्ति नहीं है, विनाश नहीं है, उसका कोई कर्ता-संहर्ता नहीं है अर्थात् वह अनादि-अनन्त है।
* जो तात्त्विक अवधारणाएँ जैन तत्त्वज्ञान को बिल्कुल ही संमत नहीं हैं, उनकी समीक्षा निबन्ध में बहुत ही विस्तार से की है । 'ईशोपनिषद' में निर्दिष्ट सत्य के ऊपर का हिरण्यमय ढक्कन, 'केन' में निर्दिष्ट ब्रह्मद्वारा तिरस्कार, ‘कठोपनिषद' के यम-नचिकेत संवाद में निहित इच्छानुसारी दीर्घायु की
16