Book Title: Upnishado ka Jain Tattvagyan par Prabhav
Author(s): Anita Bothra
Publisher: Anita Bothra

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Page 10
________________ सूत्रकृतांग के द्वितीय श्रुतस्कन्ध के ‘आर्द्रकीय' नामक छठे अध्ययन में पुरुष, जीव अर्थात् आत्मा को सर्वव्यापी और नित्य मानने में, जो मुख्य आपत्ति निर्माण होती है वह शब्दांकित की है । ४८ वी गाथा में स्पष्ट कहा है कि, आत्मा को एकान्ततः सर्वव्यापक मानने से, जीवात्माओं में भिन्नता नहीं रहेगी । मनुष्य, देव आदि गतियों में भेद नहीं रहेगा । जीव न मरेंगे, न संसारभ्रमण करेंगे, न ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और प्रेष्य होंगे, न कीट, पक्षी और सर्प होंगे ।५० प्राय: सभी उपनिषदों में ब्रह्म को 'विभु' याने व्यापक माना है । इस वजह से पुनर्जन्म सिद्धान्त में जो तार्किक आपत्ति उपस्थित होती है उसका जिक्र सूत्रकृतांग के इस गाथा में किया है । दस उपनिषदों में उपस्थित कुछ तात्त्विक मतभेदों की समीक्षा : १) ईश : 'हिरण्मयेन पात्रेण --- ।' इस प्रसिद्ध वचन में कहा है कि, सत्य का मुख ढंका हुआ है । पूषन् को आवाहन किया है कि, 'सत्यधर्म के दर्शन के लिए तुम यह ढक्कन हटा दो'।५१ ___जैन अवधारणा के अनुसार सत्य नाम की कोई अलग चीज नहीं है । जीव, पुद्गल, धर्म, अधर्म, आकाश और काल ये षड्द्रव्य ही सत् है । इसके अलावा जगत् की हरेक वस्तु, घटना तथा व्यक्ति अनन्तधर्मात्मक है ।५२ शब्द की शक्ति मर्यादित है । इसलिए प्रत्येक उच्चारित वाक्य केवल नयात्मक अर्थात् अंशात्मक सत्य है । अनेकान्तवाद का भाषान्तर ही इस प्रकार किया जाता है - Jaina Theory of Multiple Facets of Reality and Truth. २) केन : इस उपनिषद के प्रारम्भ में ही शान्तिमन्त्र में उपनिषदवर्णित 'ब्रह्म' का निर्देश है। परन्तु उसके वर्णन से लगता है कि यह कोई तत्त्व नहीं है व्यक्ति है । कहा है कि, 'ब्रह्म का मुझसे तिरस्कार न हो, ब्रह्म भी मेरा तिरस्कार न करे' ।५३ ___ यद्यपि इसमें ब्रह्मतत्त्व का बोध अपेक्षित है तथापि लगता है कि यह ब्रह्मदेव को परिलक्षित करता जैनधर्म में हरेक जीव के प्रति मैत्रीभाव की वृद्धि तथा वैरभाव के शमन की इच्छा प्रकट की जाती है ।५४ किसी तत्त्व के द्वारा तिरस्कार की बात नहीं कही गयी है । ३) कठ : सुप्रसिद्ध ‘यम-नचिकेत' संवाद में यम-नचिकेत को कहता है कि, ‘सूक्ष्म धर्मतत्त्व के बारे में कुछ मत पूछो । दूसरा कोई भी वर माँगो । शतायुषी, पुत्र-पौत्र, हाथी-घोडे, विस्तीर्ण राज्य, इच्छानुसारी आयुष्य भी तुम माँगकर लो' ।५५ जैन कर्मसिद्धान्त के अनुसार जन्म-मरण की नियन्त्रक 'यम' नाम की कोई देवता नहीं है । सबकी आयुर्मर्यादा उनके-उनके आयुष्कर्म के अनुसार तय होती है । अनेक कारणों से आयु कम हो सकती है लेकिन किसी भी अवस्था में आयुर्मर्यादा बढायी नहीं जा सकती । वैसे भी धन-सम्पत्ति, पुत्र-पौत्रादि 10

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