Book Title: Upnishado ka Jain Tattvagyan par Prabhav
Author(s): Anita Bothra
Publisher: Anita Bothra

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Page 8
________________ २) यह सब नामरूपादि विकारमय जगत् ब्रह्म है। क्योंकि यह जगत् ब्रह्म से उत्पन्न होता है, ब्रह्म में लीन होता है। ब्रह्म में ही जीवित रहता है। ३) आरम्भ में यह जगत् 'असत्' था । बाद में 'सत्' प्रवृत्त हुआ । उसके अनन्तर एक 'अण्डा' उत्पन्न हुआ । एक साल तक वह उसी अवस्था में रहा । अनन्तर फूट कर उसके दो भाग हो गये । रौप्यमय अर्धभाग पृथ्वी है और सुवर्णमय अर्धभाग स्वर्ग है । क्रम से आदित्य निर्माण हुआ । सर्व भूतमात्र और सर्व विषय आदित्य से उत्पन्न हुए । ४) जगत् की उत्पत्ति के पहले एक अद्वितीय ऐसा 'सत्' ही था । वह एकमेवाद्वितीय था । उसने देखा (चाहा) कि, ‘मैं बहुत होना चाहता हूँ ।' इसलिए उसने तेज उत्पन्न किया । तेज ने चाहा कि, “मैं बहुत होना चाहता हूँ, इसलिए उदक का निर्माण हुआ । इसी प्रकार अण्डज, जीवज और उद्भिज्ज भूतों की उत्पत्ति हुई ।४३ * बृहदारण्यकोपनिषत् : १) सृष्टि के आरम्भ में कुछ नहीं था । यह सब मृत्यु आवृत था । मृत्यु का दूसरा नाम है 'अशनाया' । उस अशनाया ने इच्छा की, कि मैं आत्मवान् हो जाऊँ । उसने मन निर्माण किया । वह अर्चन करता रहा । उससे उदक निर्माण हुआ । उस उदक पर जो मलई थी वह पृथ्वी हुई । २) सबसे पहले केवल आत्मा (प्रथमशरीरी प्रजापति ) था । वह मस्तक - हस्तादि लक्षणों से युक्त पुरुष था। वह प्रजापति स्त्री-पुरुष रूप में परिणत हुआ । उन दोनों ने विविध प्रकार के रूप धारण करके सब द्विपद-चतुष्पद सृष्टि की निर्मिति की ४५ ३) सृष्टि के पहले केवल उदक था । उदक से क्रमपूर्वक सत्य -ब्रह्म-प्रजापति - देव-मनुष्य आदि की उत्पत्ति हुई । नमूने के तौर पर प्रस्तुत किये हुए उपरोक्त सृष्टिनिर्मिति सम्बन्धी विचार एकत्रित करने से विदित होता है कि वैदिक ऋषियों के प्रायः ये कल्पनाविष्कार हैं । सभी में एकवाक्यता पाने की कतई सम्भावना नहीं है । किम्बहुना एक उपनिषद के अन्तर्गत भी दो-तीन, अलग-अलग उत्पत्तिविषयक परिकल्पनाएँ मौजूद हैं। ➖➖➖ ――― जैनदर्शन की स्वाभाविक प्रकृति ही यह है कि वह निर्मिति के सिद्धान्त के लिए, बिल्कुल ही अनुकूल नहीं है । ‘सत् से असत्' और 'असत् से सत्' निर्माण नहीं हो सकता, यह जैन तत्त्वज्ञान की दृढ धारणा है । समूचा विश्व जैनों ने जीवतत्त्व याने चेतना और अजीवतत्त्व याने पुद्गलपरमाणु, इन दो राशियों में बाँटा है । तथापि जीव और पुद्गलों को किसने और कैसे निर्माण किया इनकी पुराणकथात्मक मिथककथाएँ कहीं भी नहीं पायी जाती। विश्व सत् रूप से सदैव अनादि काल से अवस्थित है। अनन्त काल तक रहेगा । सत् की व्याख्या में अस्तित्व रूप ध्रौव्य और पर्यायरूप से परिवर्तनशीलता अध्याहृत 8

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