Book Title: Upnishado ka Jain Tattvagyan par Prabhav Author(s): Anita Bothra Publisher: Anita Bothra View full book textPage 6
________________ २) अयमात्मा ब्रह्म । ३) अहं ब्रह्मास्मि । : इन दोनों वाक्यों में जीवात्मा और परब्रह्म की एकरूपता का समीकरण बताया है । जैन दृष्टि से जीवात्मा के अतिरिक्त कोई विभु, स्वतन्त्र परमात्मा नहीं है । जैनधर्म ग्रन्थों में कभी-कभी आलंकारिक अर्थ से परमात्मा संज्ञा पायी जाती है । लेकिन यह अवधारणा है कि स्वपुरुषार्थ से आध्यात्मिक उन्नति करते करते, जीवात्मा जब विशुद्ध होती है तब उसे परमात्मा कहते हैं । एक जीव कभी भी दूसरी आत्मा में विलीन नहीं होता । इतना ही नहीं तो मुक्तजीवों का स्वतन्त्र अस्तित्व, सद् रूप से कायम रहता है । ४) तत्त्वमसि : इस उपनिषदवाक्य का मतलब है कि, 'तुम वही परब्रह्म तत्त्व हो ।' इस वाक्य की जैन उपपत्ति यह हो सकती है कि विश्व के सर्व जीवों में जीवत्व रूप से साम्य है । तथा प्रत्येक जीव में अर्थात् आत्मा में अनन्तज्ञान आदि चतुष्टय की क्षमता भी है । तथापि हरेक जीव की इन्द्रियाँ, गति, लेश्या, सुखदुःख आदि बिलकुल अलग-अलग एवं स्वतन्त्र है । 'दूसरा जीव भी मेरे समान ही है' - इस प्रकार सहसंवेदन निर्माण करना, उनके बारे में अहिंसाभाव धारण करना, यही 'तत्त्वमसि' वाक्य की जैन फलश्रुति है । सारांश, उपनिषदों के आधारभूत, सारभूत, गृहीत वाक्यों में से जैन तत्त्वज्ञान को आत्मा का अस्तित्व एवं स्वरूप मान्य है । लेकिन शरीरधारी अलग-अलग जीवात्माएँ एवं विभु-ब्रह्म इन दोनों का लयात्मक सम्बन्ध एवं सिद्धान्त जैनों को बिलकुल मान्य नहीं है । किंबहुना, पूरे प्राचीन जैनग्रन्थों में एक बार भी 'ब्रह्म' इस शब्द का प्रयोग, उपनिषदों के अर्थ में पाया नहीं जाता । सृष्ट्युत्पत्तिविषयक मान्यता : प्रमुख दस उपनिषदों का अवलोकन करते ही प्रमुखता से यह बात ध्यान में आती है कि दस में से सात उपनिषदों में सृष्टि की उत्पत्ति, उसका कर्ता, उत्पत्तिक्रम एवं पद्धति आदि के बारे में भिन्न-भिन्न विचार प्रवाह आविष्कृत हुए हैं। किंबहुना, सृष्टिविषयक विचार उपनिषदों के तत्त्वज्ञान का एक प्रमुख और अनिवार्य भाग है । विविध ऋषियों द्वारा रचित होने के कारण सृष्टिविषयक विचारों में वैचित्र्यमय विभिन्नता दृगोचर होती है । * कठोपनिषत् : तप के पहले जो उत्पन्न हुआ है, उदक आदि पंचमहाभूतों के पहले जो उत्पन्न हुआ है, प्राणिमात्रों के हृदयाकाश में याने गुहा में प्रवेश करके जो भूतों के समवेत रहता है, ऐसा हिरण्यगर्भरूपी तेज ब्रह्म है । ३१ 6Page Navigation
1 ... 4 5 6 7 8 9 10 11 12 13 14 15 16 17 18 19