Book Title: Upnishado ka Jain Tattvagyan par Prabhav
Author(s): Anita Bothra
Publisher: Anita Bothra

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Page 5
________________ का नाम ‘उपनिषद' है । उपनिषद का दूसरा नाम 'वेदान्त' भी है । स्पष्ट है कि कार्मकाण्ड का प्रतिक्रिया स्वरूप मौलिक ज्ञान उपनिषदों में निहित है । इसे 'ज्ञानकाण्ड' भी कहा जाता है । वैदिक एवं वेदोत्तरकालीन उसी परम्परा के कई ऋषियों ने आत्मा एवं ब्रह्मतत्त्व का चिन्तन करके तत्सम्बन्धी ि हुए विचार उपनिषद साहित्य में निहित है । निर्ग्रन्थ तत्त्वज्ञान प्रतिक्रियात्मक नहीं है। भ. पार्श्वनाथ का तत्त्वज्ञान प्राय: इस्वी के पूर्व आठवीं शताब्दी में प्रचलित था यह बात अब सिद्ध हो चुकी है । उनके द्वारा प्रतिपादित निर्ग्रन्थ तत्त्वज्ञान में षड्द्रव्य, नवतत्त्व एवं कर्मसिद्धान्त स्पष्ट रूप में मौजूद थे। श्रद्धा, ज्ञान, चारित्र एवं तप इनके यथायोग्य समन्वय के द्वारा ही मोक्षमार्ग की अवधारणा पायी जाती है ।२९ मूल अवधारणाओं का विस्तार जैन साहित्य में अवश्य पाया जाता है लेकिन ये अवधारणाएँ निःसंशय मौलिक हैं, प्रतिक्रियात्मक नहीं हैं । इसी वजह से जैन तत्त्वज्ञान के मूलाधार खोजे नहीं जा सकते। इतना ही नहीं तो वेदों का प्रारम्भ जिस ऋग्वेद से हुआ उसमें भी जैन मूलतत्त्वों की अवधारणा छाया रूप से भी नहीं दिखायी देती । - उपनिषदों के मूलाधार वाक्यों की जैन दृष्टि से उपपत्ति : यह कहने में बिलकुल ही अत्युक्ति नहीं है कि प्राय: प्रमुख दस उपनिषदों में (और अन्यत्र भी) पुनरावृत्त चार लघुवाक्य, सभी उपनिषदों के मूलाधार हैं । वे निम्न प्रकार के हैं । १) सर्व खलु इदं ब्रह्म । २) अयमात्मा ब्रह्म । ३) अहं ब्रह्मास्मि । ४) तत्त्वमसि ।" १) सर्व खलु इदं ब्रह्म : दृश्यमान जगत् में जो जो भी दिखायी देता है वह सब ब्रह्म है । इसमें ब्रह्मतत्त्व की विभुता वर्णित है । मतलब यह हुआ कि शरीर के अन्दर भी ब्रह्म है और बाहर भी ब्रह्म है । जैन दृष्टि से देखे तो यह स्पष्ट होता है कि अजीवतत्त्व की याने पुद्गलपरमाणु या matter की कुछ भी व्यवस्था इस चिवादी तत्त्वज्ञान में नहीं है । हरेक व्यक्ति मरणशील है । उपरोक्त सिद्धान्त के अनुसार मृत्यु के उपरान्त वह ब्रह्म में विलीन हो जायेगा । 'फिर विशिष्ट जीवों को किसके आधार से और किस प्रकार पुनर्जन्म प्राप्त होगा'-यह प्रश्न उपस्थित होता है । किसी भी उपनिषद में यह नहीं कहा है कि 'सर्वं खलु इदं ब्रह्म ।', यह तत्त्व मोक्षगत जीव को ही उपयोजित है । । जैन तत्त्वज्ञान की अवधारणा है कि संसार का प्रत्येक जीव स्वतन्त्र शरीर से युक्त है। मृत्युसमय में वह जीव परमाणुरूप शरीर का त्याग करता है। कार्मण शरीर उसके साथ ही रहता है। कार्मण शरीर में निहित आठ कर्मों की विशेषताएँ, उस जीव का पुनर्जन्म एवं सुख-दुःख आदि तय करता है। 5

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