Book Title: Upnishado ka Jain Tattvagyan par Prabhav Author(s): Anita Bothra Publisher: Anita Bothra View full book textPage 7
________________ * प्रश्नोपनिषत् : प्रजापति को प्रजा उत्पन्न करने की इच्छा हुई । उसने तप किया । (चन्द्र) और प्राण (सूर्य) यह मिथुन उत्पन्न किया । इस मिथुन से सब मूर्त-अमूर्त याने स्थूल-सूक्ष्म सृष्टि की उत्पत्ति हुई । * मुण्डकोपनिषत् १) इन्द्रादि देवों में प्रथम विश्व का कर्ता, भुवनों का पालयिता ब्रह्मदेव उत्पन्न हुआ । सब विद्याओं का आश्रयस्थान होनेवाली ब्रह्मविद्या, उसने अपना ज्येष्ठ पुत्र अथर्वा को कथन की । पराविद्या वही है जिससे अविनाशी विद्याएँ दो हैं, पराविद्या और अपराविद्या | ब्रह्म प्राप्त होता है । • वह ब्रह्म अत्यन्त सूक्ष्म, क्षय से रहित और प्राणियों का उत्पत्तिकारक है ।" २) क्षयरहित ब्रह्म से विश्व उत्पन्न होता है। ज्ञान से ब्रह्म वृद्धि को पाता है। उससे अन्न-प्राणमन (संकल्प)-आकाश- भूतपंचक (सत्य) -भू आदि सप्तलोक-कर्म-कर्मफल (अमृत) उत्पन्न होता ➖➖➖ ——— ➖➖➖ - ३) पराविद्या सत्य है । प्रदीप्त अग्नि से हजारों चिनगारियाँ उत्पन्न होती है तद्वत् अक्षरब्रह्म से नाना प्रकार के जीव (भाव) उत्पन्न होते हैं और उसी में लीन होते है । ३५ ४) उस उपाधिरहित अक्षरब्रह्म से प्राण, मन, इन्द्रियाँ, आकाश, वायु, तेज, उदक और विश्व को धारण करनेवाली पृथ्वी - यह सब उत्पन्न होता है । ३६ * तैत्तिरीयोपनिषत् १) तस्माद्वा एतस्मादात्मन आकाशः संभूतः । आकाशाद्वायुः वायोरग्निः अग्नेरापः ।। अद्भयः पृथिवी ।। पृथिव्या ओषधयः ।। ओषधीभ्योऽन्नम् ।। अन्नात्पुरुषः ।। स वा एष पुरुषोऽन्नरसमयः तस्येदमेव शिरः || २) यह जगत् पहले ‘असत्' (नामारूपादि रहित ) था । उससे 'सत्' उत्पन्न हुआ । उसने अप आपको निर्माण किया । उसे 'सुकृत' कहते हैं । वह सुकृत 'रस' है । रस पाकर आत्मा आनन्दित होता है । ३८ 7 * ऐतरेयोपनिषत् : उत्पत्ति के पहले इस जगत् में सिर्फ आत्मा था । दूसरी कोई भी व्यापारवान् चीज नहीं थी । उसने विचार किया, 'मैं निर्माण करूँ' । उसने अम्भ, मरीचि, मर और आप ये चार लोक निर्माण किये। उसके बाद लोकपाल निर्माण किये। उसने उदक से एक पुरुष निकाला । उसे पिण्ड से युक्त किया । आत्मा ने उस पिण्डपुरुष की ओर देखा । यही उसका तप था। अवलोकन से पिण्डपुरुष से मुख उत्पन्न किया । मुख से वाणी, वाणी से अग्नि तथा नासिका उत्पन्न हुई । नासिका से प्राण फिर चक्षु, कर्ण, त्वचा, लोम, हृदय, मन, चन्द्रमा, नाभि, अपान, मृत्यु, शिश्न, रेत, उदक * छांदोग्योपनिषत् १ ) इस लोक का आश्रय आकाश है। स्थावर-जंगमादि सर्व भूतमात्र आकाश से उत्पन्न होते हैं और आकाश में ही उनका अस्त होता है। अर्थात् परमात्मरूप आश्रयस्थान है |४०Page Navigation
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