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को ग्रहण करके वे जिनेन्द्र द्वारा प्रतिपादित मार्ग में अग्रसर हुए । ' ६२ दीक्षित होते समय मात्र आभूषणों का त्याग करना तथा श्वेत शुभ्र वस्त्रों को ग्रहण करना दिगम्बर परम्परा के विरोध में जाता है। इससे ऐसा लगता है कि जटा सिंहनन्दि दिगम्बर परम्परा से भिन्न किसी अन्य परम्परा का अनुसरण करने वाले थे । यापनीयों में अपवाद मार्ग में दीक्षित होते समय राजा आदि का नग्न होना आवश्यक नहीं माना गया था। चूंकि वरांगकुमार राजा थे अत सम्भव है कि उन्हें सबस्त्र ही दीक्षित होते दिखाया गया हो । यापनीय ग्रन्थ भगवती आराधना एवं उसकी अपराजिता टीका में हमें निर्देश मिलते हैं कि राजा आदि कुलीन पुरुषों के दीक्षित होते समय या संथारा ग्रहण करते समय अपवाद लिंग ( सवस्त्र ) रख सकते हैं । " पुनः वरांगचरित में हमें मुनि की चर्या के प्रसंग में हेमन्त काल में शीत - परिषह सहते समय मुनि के लिए मात्र एक बार दिगम्बर शब्द का प्रयोग मिला है । सामान्यतया 'विशीर्णवस्त्रा' शब्द का प्रयोग हुआ है । एक स्थल पर अवश्य मुनियों को 'निरस्त्रभूषा' कहा गया है" किन्तु निरस्त्रभूषा का अर्थ साज-सज्जा से रहित होता है, नग्न नहीं । ये कुछ ऐसे तथ्य हैं जिनपर वरांगचरित की परम्परा का निर्धारण करते समय गम्भीरता से विचार किया जाना चाहिए। मैं चाहूंगा कि आगे आने वाले विद्वान् सम्पूर्ण ग्रन्थ का गम्भीरतापूर्वक आलोडन करके इस समस्या पर विचार करें ।
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साध्वियों के प्रसंग में चर्चा करते समय उन्हें जीर्ण-शीर्ण वस्त्रों को धारण करने वाली अथवा विशीर्णं वस्त्रों से आवृत्त देह वाली कहा गया है ।" इससे भी यह सिद्ध होता है कि वरांगचरितकार जटा सिंहनन्दि को स्त्री दीक्षा और सवस्त्र दीक्षा मान्य थीं । जबकि कुन्दकुन्द स्त्री दीक्षा का सर्वथा निषेध करते है । ११. वरांगचरित में स्त्रियों की दीक्षा का स्पष्ट उल्लेख है उसमें कहीं भी ऐसा उल्लेख नहीं है कि स्त्री को उपचार से महाव्रत होते हैं, जैसा कि दिगम्बर परम्परा मानती है । इस ग्रन्थ में उन्हें तपोधना, अमित प्रभावी गणाग्रणी, संयमनायिका जैसे सम्मानित पदों से अभिहित किया गया है ।" साध्वी वर्ग के प्रति ऐसा आदरभाव कोई श्वेताम्बर या यापनीय आचार्य ही प्रस्तुत कर सकता है । अतः इतना निश्चित है कि जासिंहनन्दि का वरांगचरित कुन्दकुन्द की उस दिगम्बर परम्परा का ग्रन्थ नहीं हो सकता, जो स्त्रियों की दीक्षा का निषेध करती हो या उनके उपचार से ही महाव्रत कहे गये हैं, ऐसा मानती हो । कुन्दकुन्द ने सूत्रप्राभृत गाथा क्रमांक २५ में एवं लिङ्गप्राभृत गाथा क्रमांक २० में स्त्री दीक्षा का स्पष्ट निषेध किया है ।
१२- वरांगचरित में श्रमणों और आर्यिकाओं को वस्त्रदान की चर्चा है । यह
कि "वह नृपति मुनि पुङ्गवों और अन्नदान तथा दरिद्रों को
तथ्य दिगम्बर परम्परा के विपरीत है । उसमें लिखा है को आहारदान, श्रमणों और आर्यिकाओं को वस्त्र याचित दान ( किमिच्छदानं) देकर कृतार्थ हुआ ।४" यहां मूल श्लोक में जहां मुनिपुङ्गवों के लिए आहारदान का श्रमण और आर्यिकाओं के लिए वस्त्र और अन्न (आहार) के दान का प्रयोग हुआ है । संभवतः यहां अचेल मुनियों के लिए ही 'मुनिपुङ्गव' शब्द का प्रयोग हुआ है और
प्रश्न उपस्थित होता है कि उल्लेख किया गया है वहां
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तुलसी प्रज्ञा
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