Book Title: Tulsi Prajna 1992 07
Author(s): Parmeshwar Solanki
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 90
________________ बिन्दुओं पर जो प्रकाश डाला है वह जैन दर्शन के तात्त्विक और ज्ञानमीमांसीय दृष्टिकोण से बहुत ही महत्त्वपूर्ण है। सर्वप्रथम मंगलाचरण में तीर्थंकरों के प्रति स्तुति करने के बाद दूसरे प्रकरण में तत्त्वमीमांसा पर प्रकाश डाला गया है । किसी भी दार्शनिक तत्र की दार्शनिक विवेचना में उसकी तत्त्वमीमांसा का बहुत ही महत्त्व होता है । तत्त्व की परिभाषा उन्होंने बहुत ही सुन्दर ढंग से प्रथम दोहे में की है। जैन दर्शन में सद्वस्तु को विशेष महत्त्व दिया गया है । वस्तुवादी होने के कारण वस्तु को सत् मानते हैं। इनके अनुसार सद्वस्तु का ज्ञान ही मोक्ष है, जिसे सम्यक् ज्ञान द्वारा प्राप्त किया जा सकता है । मुनिवर ने इस बात को एक ही दोहे द्वारा स्पष्ट किया है "कहते हैं सद्वस्तु को, तत्त्व, तत्त्वविद् संत । तात्त्विक सम्यग् ज्ञान से, भव-सागर का अन्त ।" तत्त्वमीमांसा के प्रकरण में ही जीव-अजीव तत्त्वों का विवेचन, जीव के भेद, अजीव के भेद, पाप-पुण्य, बन्ध, आश्रव, संवर, निर्जरा आदि सभी तत्त्वों का विस्तार से वर्णन किया है, जो जैनतत्त्व मीमांसा को समझने में सहायक है। जैन दर्शन में कर्मपुद्गलों का विशेष महत्त्व है । आत्मा में शुभ-अशुभ प्रवृत्तियों का प्रवेश ही बन्ध है, उसी को आश्रव कहते हैं। आश्रव की व्याख्या मुनि जी ने निम्न दोहे में की है जो बहुत संक्षेप में ही आश्रव के स्वरूप को प्रकट करती हैं “जीव नाव में छेद सम, होता आश्रव द्वार । जिसके द्वारा कर्म जल, आता है बारबार ।। जिस प्रकार नाव का छिद्र बन्द रखें तो पानी का आना रुक जाता है, उसी प्रकार आथव को रोक दिया जाय तो कर्म जल का आना बन्द हो जाता है । यही संवर है । यदि आश्रव बन्ध कारक है तो संवर मोक्ष कारक है । इसकी व्याख्या मुनि जी ने निम्न दोहे में बहुत ही प्रभावी ढंग से की है "है आश्रव को रोकना, संवर तत्त्व उदार । नौका यह निश्छिद्र है, प्राप्त करें भाव पार ।।" तत्त्वमीमांसा के बाद द्रव्य की मीमांसा में जैनदर्शन में मान्य विभिन्न द्रव्यों की गणना एवं स्वरूप की विवेचना की गई है । जैन दर्शन में द्रव्य ही सत् है, जिसमें उत्पाद, व्यय और स्थिति होती हैं । द्रव्य के इस स्वरूप की व्याख्या, उसके अस्तिकाय, अनस्तिकाय होने, पुद्गल द्रव्य के स्वरूप, उसके धर्म, स्कन्ध प्रदेश, परिणमन आदि की प्रभावी व्याख्या हुई है। इन सभी दोहों में एक बात बहुत ही महत्त्वपूर्ण है कि पाठक यदि जैन दर्शन से पूर्व में परिचित नहीं भी है, तो भी उसे विषय की पूरी जानकारी इन दोहों से हो जाती है। तत्त्वमीमांसा और ज्ञानमीमांसा सम्बद्ध होते हैं । मुनिवर ने जनदर्शन के ज्ञानमीमांसीय पक्ष को भी प्रस्तुत पुस्तक में अच्छी तरह से उजागर किया है । जीव का लक्ष्य ही सम्यग् ज्ञान की प्राप्ति है । सम्यग् ज्ञान के स्वरूप, ज्ञान के भेद आदि की चर्चा भी हुई है है । प्रत्यक्ष और परोक्ष ज्ञान का स्वरूप स्पष्ट करके मति, श्रुत, तुलसी प्रज्ञा For Private & Personal Use Only Jain Education International www.jainelibrary.org

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