Book Title: Tulsi Prajna 1992 07
Author(s): Parmeshwar Solanki
Publisher: Jain Vishva Bharati

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Page 95
________________ इनप्राचीन कहानियों के पढ़ने से उस युग की कन्याओं और महिलाओं के उदात्त चरित की स्पष्ट जानकारी मिलती है और अन्य अद्भुत ज्ञातव्य वातों का भी बोध होता है । गलित कुष्ठ अत्यन्त दुःखदायी असाध्य रोग है । उस युग के वैद्य इसे कुछ ही दिनों में मूल से मिटा देते थे । इस विषय में प्रस्तुत ग्रन्थ के आठवें पृष्ठ पर लिखा है ""वैद्य पुत्र जीवानन्द ने मुनि श्री की चिकित्सा प्रारम्भ कर दी । सर्वप्रथम मुनिश्री के सारे शरीर पर लक्षपाल तल का मर्दन कर रत्नकम्बल ओढ़ा दिया गया । इस प्रक्रिया का चामत्कारिक असर हुआ । तैल की ऊष्मा से चर्मगत कुष्ठ के सारे कीटाणु कम्बल पर आकर चिपक गये । तब कम्बल को उतार लिया गया और उसे सावधानी पूर्वक झाड़कर सारे कीड़ों को अलग कर दिया गया । तल की गर्मी को शांत करने के लिए सारे शरीर पर गोशीर्व चन्दन का लेप कर दिया गया। इस उपचार से एक दिन में ही मुनिश्री की आधी व्याधि शांत हो गई । 61.. दूसरे दिन यही प्रक्रिया पुनः दुहराई गई । आज तेल की गर्मी से मांसगत कीटाणु बाहर निकल आये । शेष अस्थिगत कीटाणु तीसरे दिन इसी प्रयोग से बाहर आ गए । "मुनिश्री अब पूर्ण स्वस्थता महसूस करने लगे । दमकने लगा ।" उनका शरीर कुन्दन की तरह इस तरह प्रस्तुत ग्रन्थ बीस महासतियों के पवित्र वृत्त पर के साथ-साथ अनेक प्राचीन रहस्यों को उद्घाटित करता है । ये भटकते मानव को रोशनी का काम देंगी । ग्रन्थ के प्रतिभाशाली सम्पादक मुनिश्री धर्मरुचि के कुशल सम्पादन से ग्रन्थ का आकर्षण और बढ़ गया है । ग्रन्थ की लेखन शैली, प्राञ्जल भाषा, पक्की जिल्द तथा छपाई - सफाई सभी उत्तम हैं । प्रूफ संशोधन की ओर भी पूर्ण सावधानी रखी जाती तो सुन्दरता और बढ़ जाती । ऐसी उत्तम कृति के प्रकाशन के लिए लेखिका, सम्पादक और प्रकाशक सभी अभिनन्दनीय हैं । Jain Education International - अमृतलाल शास्त्री ब्राह्मी विद्यापीठ, लाडनूं ४. 'संस्कृत शतकपरम्परा और आचार्य विद्यासागर के शतक' - लेखिका श्रीमती डॉ० आशालता मलैया । प्रथम संस्करण - १९८९, प्रकाशक - जय श्री आयल मिल, दुर्ग, मूल्य - १२० रुपये, पृष्ठ ४७१ । प्रस्तुत कृति सागर विश्वविद्यालय से स्वीकृत शोध प्रबंध है । उसमें कुल ५१ शतकों की विवेचना की गई हैं जो स्तुति, वैराग्य, नीति और श्रृंगार भेद से चार प्रकार के हैं । लेखिका ने संस्कृत शतक परम्परा को आचार्य समन्त भद्र के 'जिनशतकम्' से शुरू माना है । प्रथम खण्ड में क्रमशः २१ स्तुति अथवा भक्ति शतक, ८ वैराग्य शतक, १३ खंड १८, अंक २ (जुलाई-सित०, ६२ ) विशद प्रकाश डालने कहानियां चारित्रमार्ग For Private & Personal Use Only १६५ www.jainelibrary.org

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