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पुण्यश्लोक वस्तुपाल
वस्तुपाल अणहिलवाड़ पाटन के प्राग्वाट वंशी अश्वराज और कुमारदेवी के पुत्र थे। अश्वराज सिद्धराज जय सिंह के सचिव सोम के पुत्र थे और कुमारदेवी उनके दण्डपति आभू की पुत्री । स्वयं अश्वराज भी सचिव पद पर नियुक्त हुए।
वस्तुपाल के तीन भाई और सात बहिनें थीं । संभवतः विक्रमी संवत् १२४९ तक वे मण्डली (वर्तमान माण्डल) में रहे और अपनी माता की मृत्यु के बाद धवलक्का आये और वहां कवि सोमेश्वर द्वारा परिचय कराये जाने पर राजा वीर धवल के सचिव नियुक्त हए । इससे पूर्व 'नरनारायणानन्द' (१६.३५) के अनुसार वह गुर्जर महीपति भीम के सचिव थे।
___ वस्तुपाल जैन थे किन्तु उनमें सर्वधर्मसमभाव का अतिरेक था। कीतिकौमुदी (४.४०) कहती है
नानर्च भक्तिमान्नेमो नेमो शंकरकेशवौ ।
जैनोऽपि यः सवेदानां दानारम्भः कुरूते करे ।। इसी प्रकार पुरातन प्रबन्ध संग्रह में उनके लिए लिखा गया है
बौद्धबौद्धो वैष्णवविष्णुभक्तः शैवैः शिवो योगिभिर्योगरंगः । ____ जनस्तावज्जैन एवेति कृत्वा सत्त्वाधारः स्तूयते वस्तुपालः ।।
- इसीलिये वह सोमेश्वर, हरिहर, नानाक, यशोवीर, सुभट, अरिसिंह, अमर चन्द्रसूरि, विजयसेन सूरि, उदयप्रभसूरि, जिनभद्र, नरचन्द्रसूरि, नरेन्द्रप्रभसूरि, बालचन्द्र, जय सिंहसूरि, माणिक्यचन्द्र आदि अनेकों विद्वान् कवियों के आश्रयदाता बनें।
वस्तूपाल धोलका अथवा धवलक्का के वाघेला नरेश के महामात्य थे और राजनीति के साथ साहित्य जगत् के विराट् व्यक्तित्व । उनके साहित्य-स्रजन और साहित्यकार-संरक्षण से अनेकों विद्वान् अभिभूत हैं। संभवतः सर्वप्रथम प्रो० ए. वी. काठवटे ने उनके जीवन और कर्तृत्त्व पर कीर्तिकौमुदी की भूमिका में लिखा जो सन् १८८३ मे छपी। डॉ० बूलर ने सन् १८८९ में जर्मन में 'सुकृतसंकीर्तन' पर लिखे लेख में उनका परिचय दिया । बम्बई गजट' सन् १८९६ में छपा तो उसकी पहली जिल्द के पहले भाग में उन पर पूरा एक अध्याय लिखा गया । दीवान बहादुर रण छोड़ भाई द्वारा रासमाला में परिशिष्ट सन् १८९९ में लिखा गया । वल्लभजी हरिदत्त आचार्य ने कीतिकौमुदी का गुजराती अनुवाद सन् १९०८ में किया। चिमनलाल डी० दलाल ने वस्तुपाल के नरनारायणानंद, बालचन्द के बसन्त विलास, और जयसिंह सूरि के हम्मीरमदमर्दन पर अपने विचार सन् १९३९ में प्रकाशित किये ।
तदुपरांत भी वस्तुपाल के व्यक्तित्व और कर्तृत्त्व पर बहुत लिखा गया है और लिखा जा रहा है । वस्तुतः यह अनोखा व्यक्तित्व है जो राजा न होते हुए भी साहित्य और संस्कृति का परम पोषक और स्वयं साहित्य और संस्कृति की सेवा में दत्तचित्त रहा है।
-परमेश्वर
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